रविवार, 21 अगस्त 2011

मौत के चंगुल में(भाग-2)


किन्हीं कारणों से मैं बाल उपन्यास मौत के चंगुल मेंका अगला भाग नहीं प्रकाशित कर सका था।लेकिन अब मैं नियमित रूप से इसे सप्ताह में एक बार प्रकाशित करूंगा। प्रस्तुत है इस उपन्यास का  आगे का कथानक।                      

मौत के चंगुल में--(भाग-2)                                                                               (बाल उपन्यास)                                                                                                 लेखक-प्रेम स्वरुप श्रीवास्तव                                                                स्कूल का सारा सामान बच्चों की सुविधा को ध्यान में रखकर जुटाया गया था।पहिएदार कुर्सियां थीं।बिना पैर के बच्चे उन्हें अपने हाथों से ही चलाकर,अपने रहने के कमरे या फूलों से भरे बगीचों में पहुंच जाते थे।चलते फिरते तखत थे जिन पर बहुत छोटे बच्चों को बैठाकर आस पास की सैर कराई जाती।अंधे बच्चों को सुन्दर गाने सुनाए जाते।आंख वालों को बढ़िया तस्वीरें दिखाई जातीं।ये बच्चे खुद भी अच्छा गाते थे और तस्वीरें बनाते थे।                                                                      
स्कूल के छोटे से खूबसूरत बगीचे में हिरन,खरगोश,कुत्ते,बिल्ली और रंगीन परों वाली बतखें तथा मुर्गियां पली हुई थीं।इनसे बच्चों की अच्छी दोस्ती थी।वे बिना किसी हिचक के बच्चों के कमरों में घूम आते।कभी कभी तो भोजन के वक्त उनकी थालियों पर भी आ जुटते।
                     वाटसन एक खूबसूरत नौजवान था।अभी उसकी शादी नहीं हुई थी।कितने ही लोग उसके पास शादी के संदेश लेकर आए। पर वह सबको यही जवाब देता--मैं शादी कर लूंगा,तो अपने इन बच्चों पर ध्यान नहीं दे पाऊंगा।
          लोग उसे समझाते---भले आदमी,क्या जिंदगी भर ब्याह नहीं करोगे?जो लोग शादी नहीं करते उन्हें बहुत तकलीफें उठानी पड़ती हैं।
     यह सुनकर वाटसन हंस पड़ता और कहताइन बच्चों के रहते मुझे किसी तरह की तकलीफ हो,मैं ऐसा कभी सोचता भी नहीं।यह सच है कि ईश्वर ने इन बच्चों के साथ अन्याय किया है।पर यह भी सच है कि अपनी इस भूल को सुधारने के लिए उसने मुझे इनके बीच भेजा है।मैं शादी करके उस दयालु ईश्वर को ठेस नहीं पहुंचाना चाहता।
      कभी कभी लोग उससे यह भी पूछते--इन अपाहिज बच्चों के लिए तुम दुनिया भर की आफत झेलते हो मगर तुम्हें क्या मिलेगा?ये हाथ पैर वाले बच्चे रहे होते तो बड़े होने पर तुम्हारे उपकार का बदला भी चुकाते।
      वाटसन उनकी इस नासमझी पर हंस देता और उन्हें समझाता--देखो भाई,हर काम बदले की भावना से ही नहीं किया जाता।दूसरे बच्चे तो बड़े होने पर मेरा उपकार चुकाते, मगर ये बच्चे तो अभी से मेरे मन को सुख पहुंचाने लगे हैं।इनके लिए कुछ भी करते हुए मुझे इतना आनंद मिलता है कि मैं उसका वर्णन नहीं कर सकता।
          वाटसन की इस सनक ने उसे अपने देश से बाहर भी मशहूर कर दिया था।अक्सर विदेशी यात्री उसके अद्भुत स्कूल को देखने पहुंच जाते।वे उसके कामों से बहुत खुश होते और उसकी तारीफ करते हुए लौटते।इन बच्चों के लिए बहुत से उपहार उसे विदेशों से मिले थे।लोगों का कहना था कि  इस तरह के स्कूल हो सकता है दुनियां में और भी हों,लेकिन वाटसन जैसे सनकी  धुन के पक्के और साहसी लोग कम मिलेंगे।लोगों का ऐसा सोचना सही था।क्योंकि इस सनक ने ही उसे और उसके बच्चों को मौत के चंगुल में पहुंचा दिया था!किन्तु ................!(क्रमशः)
 ( इस बाल उपन्यास के लेखक मेरे पिता जी श्री प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव जी हिन्दी साहित्य के लिये नये नहीं हैं।आप पिछले छः दशकों से साहित्य सृजन में संलग्न हैं। आपने कहानियों,नाटकों,लेखों,रेडियो नाटकों,रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य की रचना की है। आपकी कहनियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ वृत्त चित्रों का लेखन कार्य भी किया है।1950 के आस पास शुरू हुआ आपका लेखन एवम सृजन का यह सफ़र आज 82 वर्ष की उम्र में भी जारी है।)
  हेमन्त कुमार द्वारा प्रकाशित।                                                                                                    

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