(हिन्दी के प्रतिष्ठित
बाल साहित्यकार हमारे पिताजी आदरणीय श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी का आज 89वां
जन्म दिवस है।वो
भौतिक रूप से हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं लेकिन उनकी रचनात्मकता तो हर समय हमारा मार्ग दर्शन करेगी .---ऐतिहासिक व्यक्तित्व “महमूद बघर्रा” के विषय में रोचक जानकारियां देने वाला यह लेख पिता
जी ने देहावसान से एक दो माह पहले ही लिखा था। उनकी अभी तक अप्रकाशित इस रचना को आज
मैं “फुलबगिया” पर प्रकाशित कर रहा हूँ।)
महमूद बघर्रा
प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
दोस्तों पता नहीं तुमने कभी महमूद बघर्रा का नाम पढ़ा है या
नहीं। अगर नहीं तो चलो आज पढ़ ही लेते हैं।मगर यह काल्पनिक नाम नहीं इतिहास का एक
सच है।एक अद्भुत व्यक्तित्व।पढ़ोगे तो दांतों तले उंगली दबाए रह जाओगे।
इतिहास में कहीं कहीं इनका नाम महमूद बघेला
भी मिलता है।यह लोदी वंश से था और सन पन्द्रह सौ के आस पास गुजरात का सुल्तान
था।पन्द्रह सौ ग्यारह म्में इसकी मृत्यु हुयी।
इतिहास में कुछ सुल्तान क्रूरता के लिये,कुछ
वीरता के लिये और कुछ दयालुता के लिये प्रसिद्ध हैं।मगर बघर्रा में ऐसा कुछ नहीं
था।वह मशहूर है अपने भोजन के लिये।जैसे रावण का भाई कुम्भकर्ण सोने के लिये।गनीमत
थी कि कुम्भकर्ण साल में छः महीने सोता था।मगर बघर्रा तो पूरे साल जागता था। चलो
कुछ उसके भोजन के बारे में बताएं। अच्छा हुआ कि वह आज के जमाने में नहीं हुआ।वरना
उसके कारण सौ डेढ़ सौ लोगों को रोज खाना ही नसीब न होता।
आओ,उसके सुबह के नाश्ते से बात शुरू करते
हैं।सुबह नाश्ते में वह डेढ़ से दो दर्जन तक मुर्गे खाता था।दो से लेकर चार दर्जन
तक अंडे।यह कम से कम मात्रा बतायी गयी है इतिहास में।पता नहीं कितनी मटकी
दूध,दही,मक्खन,मलाई। इसी तरह और बहुत कुछ।
अब आओ उसके भोजन पर एक नजर डालते हैं।उसके
लिये एक देग भर कर चावल पकता था।सोच लो कि एक देग में चार से लेकर पांच बाल्टी तक
पानी आ सकता है।सोचो उस पूरे देग में कितना चावल पकता होगा।चावल के अलावा सौ से
लेकर डेढ़ सौ तक रोटियां।साथ में कितने मांस मछली की जरूरत पड़ती होगी सोच लो।
उसके पलंग के चारों ओर थालों और परातों में भोजन भरा रहता था।वह जिस थाल
पर चाहता था हाथ मारता रहता था।मिनटों में थाल खाली हो जाता था।वह जब सोता था तो
उसके खर्राटों की आवाज बड़ी भयानक होती थी।जैसे आस पास भेड़िए गुर्रा रहे हों।
उसमें एक बात खास थी।वह बड़ी आसानी से अनुमान
लगा लेता था कि उसके भोजन में कोई कटौती तो नहीं हुयी।उदाहरण के लिये तुमने पालतू
हाथियों के बारे में सुना होगा।उसकी खुराक के रूप में गन्ना,पीपल य बरगद की
टहनियां तो दी ही जाती हैं।मगर उसका मालिक उसकी रोटियों के लिये कुछ आटा भी बराबर
देता है।पांच से लेकर दस किलो तक।ये रोटियां प्रायः महावत ही तैयार करता है।
कभी कभी लालचवश महावत कुछ आटा निकाल भी लेता
है।हाथी रोटियां देखते ही समझ जाता है कि आज कुछ गड़बड़ है।महावत उसकी सजा जानते
हैं।इसलिये उस दिन तो हाथी से दूर रहने की कोशिश करते हैं।मगर नौसिखिया महावत फ़ंस
जाते है।प्रायः ही हाथी महावत को सूंड़ से लपेटकर पटक पटक कर मार डालता है।या पैरों
से कुचल डालता है।
एक बार ऐसा ही महमूद बघर्रा के साथ भी हुआ।उसे
अनुमान लग गया कि बावर्ची ने चावल में चोरी की है।बस उसने बावर्ची का हाथ पकड़
लिया।बावर्ची समझ गया कि उसकी मौत पक्की है।वह बघर्रा के पैरों पर माथा पटक पटक कर
लगा रोने।अपनी गरीबी के दुखड़े रोये।
महमूद बघर्रा ने तरस खाकर उसकी जान तो बख्श
दी।मगर उसने बावर्ची के जिस हाथ को पकड़ा था उसकी हड्डियों का चूरा चूरा हो गया था।क्यों
था न बघर्रा इतिहास का एक बेमिसाल व्यक्ति।
000
लेखक—
प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
11मार्च,1929
को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म।
31जुलाई 2016 को लखनऊ में आकस्मिक निधन।
शुरुआती पढ़ाई जौनपुर
में करने के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के
शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी नौकरी।पिछले छः दशकों से साहित्य सृजन मे
संलग्न।देश की प्रमुख स्थापित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों,नाटकों,लेखों,रेडियो नाटकों,रूपकों के
अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन।आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से
नियमित नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।
बाल कहानियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।“वतन है हिन्दोस्तां हमारा”(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)“अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का तारा”आदि बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें। सन 2012 में नेशनल बुक ट्रस्ट,इण्डिया से प्रकाशित बाल उपन्यास “मौत के चंगुल में” काफी चर्चित।नेशनल बुक ट्रस्ट,इण्डिया से प्रकाशनाधीन बालनाटक संग्रह”एक तमाशा ऐसा भी”
इसके साथ ही शिक्षा विभाग
के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस पास
शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह सफ़र 87 वर्ष की उम्र तक निर्बाध चला।