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गुरुवार, 11 मार्च 2021

झुमरू का बेटा

 (आज 11 मार्च को मेरे पिता स्व० श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी का जन्म दिवस है।इस अवसर पर उन्हें स्मरण करते हुए उनकी यह कहानी आप सभी पाठकों के लिए।)

                   झुमरू का बेटा

               

                                                  लेखक--प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव



          झुमरू हमारे यहाँ हलवाहा था।उसका बेटा था नकुल।गाँव के जूनियर हाईस्कूल में नकुल और मैं एक ही कक्षा में पढ़ते थे।स्कूल में नकुल का नाम नकुलचन्द था।लेकिन मेरी माँ उसे नक्कू ही पुकारती थी।जब भी माँ उसे नक्कू कह कर बुलातीं मै उन्हें तुरन्त टोकता-माँ यह नक्कू नहीं नकुल है।स्कूल में इसका नाम नकुलचन्द है।

अरे चलचल, बड़ा आया नाम वाला।है तो झुमरू का ही बेटा न, नक्कू।होगा स्कूल में इसका नाम नकुलचन्द।माँ चिढ़ कर उत्तर देती।

          नकुल मेरा सहपाठी ही नहीं, मेरा अच्छा दोस्त भी था।पढ़ाई में बहुत तेज।वह मेरे साथ खेलता।हम साथ साथ घर पर पढ़ने भी बैठ जाते।कभी कभी वह हमारे यहाँ ही खाना भी खा लेता। मगर मुझे खाना थाली में दिया जाता, उसे पत्तल में।दरवाजे पर महुआ का पेड़ था।झुमरू रोज उसके पत्ते तोड़ कर पत्तल बनाता।बाप बेटे उसी पर साथ साथ खाते थे।आँगन के एक कोने में जमीन पर बैठ कर।खाने के बाद झुमरू उस जगह को पानी से लीप देता था।

    मां मुझे बहुत प्यार करती थी।इसीलिये मुझे नकुल के साथ खेलने पढ़ने से तो नहीं मना करती थीं।मगर वे इसका बड़ा ध्यान रखती थीं कि मेरे और नकुल के बीच एक दूरी अवश्य बनी रहे।मालिक और मजदूर की।शायद ऊँच नीच की भी।वे उसके हाथ का पानी नहीं पीती थीं।

पर यह सब जानते हुए भी नकुल माँ का बड़ा आदर करता था।वे जब उसे बुलातीं वह अपने सारे काम छोड़ दौड़ पड़ता।मैं खीझता तो वह मुझे समझाता --देख रमेश, इससे क्या होता है।मन से तो वे मुझे प्यार ही करती हैं।

      मेरे पिता जी शहर में नौकरी करते थे।हफ्ते में एक दिन के लिए घर आते थे।गाँव में हम लोगों की अच्छी खेती बारी थी।माँ इसके मोह जाल में फँस कर पिताजी के साथ शहर में रहने के लिए तैयार नहीं थीं।इसीलिए मुझे भी माँ के साथ ही रहना पड़ा।

समय ऐसे ही बीत रहा था।देखते न देखते वह दिन भी आया कि नकुल और मैंने गाँव के स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली।पढ़ाई के प्रति नकुल की लगन देख पिता जी ने मेरे साथ ही उसका नाम भी शहर के कालेज में लिखवा दिया।पर आगे चल कर हम लोगों को अलग होना पड़ा।वह मेडिकल की पढ़ाई करने दूसरे शहर चला गया।मैं प्रशासनिक सेवा की तैयारी करने लगा।

माँ को अब भी अपने गाँव के घर, जमीन, जायदाद का मोह जकड़े हुए था।इसीलिए घर नहीं छोड़ा। उनकी सेवा के लिए पिता जी ने एक नौकरानी लगा दी।बीच बीच में कभी मैं, कभी पिताजी उनके पास पहुँच जाते थे।

बहुत दिनों से मैं न तो नकुल से मिल पाया, न उसका कोई हालचाल मिला।एक दिन सुना कि वह डाक्टर  बन गया है।मगर उसने शहर में प्रैक्टिस करने के बजाय अपने गाँव में ही एक दवाखाना खोल लिया है।सुन कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।

इस बार गाँव आने पर नकुल से मेरी भेंट हुई।मैंने उसे गले लगाते हुए कहा --नकुल, गाँव में अपना दवाखाना खोलने के तुम्हारे फैसले से मैं बहुत खुश हूँ।आज लोग डाक्टर बनते ही पैसों के पीछे भागने लगते हैं।इसीलिए वे शहरों में ही अपना नर्सिंग होम खोलने या सरकारी नौकरी में आने का लालच नहीं छोड़ पाते।अपने देश का बड़ा हिस्सा गाँवों में ही बसता है।यहाँ सरकारी दवाखाने हैं पर वे अपर्याप्त हैं।तुम गाँव के लिए कुछ करोगे तो यह सब से बड़ी देश सेवा होगी।अब मैं भी माँ की ओर से निश्चिन्त रहूँगा।

अरे यह भी कोई कहने वाली बात है।वे तो मेरी भी माँ हैं। नकुल मुस्करा कर बोला।

लेकिन जब माँ ने सुना तो वे बड़बड़ायीं --अरे वाह, झुमरू का बेटा गाँव में डाक्टरी करने आया है। भला वह किसी केा क्या ठीक करेगा।कौन खायेगा उसके हाथ की दवा।

लेकिन इसके विपरीत नकुल बराबर उनका हालचाल लेने पहुँच जाता।उनकी कोई तकलीफ सुनता तो उसकी दवा दे जाता।मगर माँ उसके जाते ही उस दवा को किसी कोने में फेंक देती।

एक दिन नकुल ने देखा-- माँ को ज्वर है।उसने तुरन्त उनके लिये दवा भिजवा दी।मगर माँ ने हमेशा की तरह उसे भी फेंक दिया।

अगले दिन नौकरानी दौड़ती हुई नकुल के पास आयी और बोली-डा०साहब, माँ जी को बड़ा तेज बुखार है।उन्हें सुध बुध नहीं है।

नकुल तुरन्त दवा का बैग ले कर दौड़ पड़ा।माँ का शरीर तवे की तरह तप रहा था।वे अचेत थीं। नकुल नें उन्हें इन्जेक्शन लगाया।फिर माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखने लगा।

कुछ समय बाद माँ को आराम मिलता दिखायी दिया।उनकीं पलकें धीरे धीरे खुलने लगीं।थोड़ी देर बाद वे पूरी तरह होश में आ गईं।उन्होंने आँखे खोली तो देखा-- नकुल उनके पास बैठा माथे पर पानी की पट्टी रख रहा था वे सब समझ गईं।उनकी आँखें डबडबा आयीं।काँपते होठों से बस दो ही शब्द निकले-- बेटा नकुल।

हाँ माँ, मैं वही आपका नक्कू हूँ, झुमरू का बेटा। नकुल बोला।

नहीं तू तो मेरा बेटा नकुलचन्द है रे।”

नहीं माँ, मुझे नक्कू ही रहने दो।बड़ा प्यारा लगता है यह छोटा सा नाम।नकुलचन्द--- बाप रे बाप, इतने भारी भरकम नाम का बोझ मैं नहीं उठा पाऊँगा माँ। कहकर नकुल खिलखिला पड़ा।

  मां भी हँस पड़ी।पर तभी उनकी आँखे एक बार फिर नम हो आयीं।वे भर्राए गले से बोलीं-नकुल, मैंने कभी भी तुझे झुमरू के बेटे से अधिक कुछ नहीं माना।तेरे भीतर छिपे हुए हीरे को मैं कभी नहीं जान पायी।मुझे माफ कर दे बेटा।

नहीं माँ, भला कोई माँ अपने बेटे से ऐसा कहती है।एक ओर मुझे बेटा कहती हैं, वहीं दूसरी ओर मुझ से माफी भी माँग रही हैं!नहीं माँ, नहीं। कहते हुए नकुल ने अपना हाथ माँ के होठों पर रख दिया।

माँ नकुल के हाथ को अपनी दोनों हथेलियों के बीच दबाती हुई बोली-पहले मैं सोचती थी, कितना बड़ा मूर्ख है तू।लोग डाक्टर बन कर शहर में कमायी करते हैं।गाँव में भला क्या रखा है।पर नहीं, मैं गलत थी।

माँ, मैं पैसों के लिए इस पेशे में नहीं आया।यहाँ गाँव को मेरी ज्यादा जरूरत थी।यहाँ पैसा भले न हो, मगर लोगों का प्यार है।पैसे से आदमी जी तो लेता है, मगर दिल को सुकून तो प्यार से ही मिलता है।माँ उसे एकटक देखे जा रही थीं।नकुल सोच रहा था-- गाँव में अपना दवाखाना खोलना आज सचमुच सफल हो गया।

                                  ०००००००

लेखक--प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव



11मार्च,1929 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म।

31जुलाई 2016 को लखनऊ में आकस्मिक निधन।

शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी नौकरी।पिछले छः दशकों से साहित्य सृजन मे संलग्न।देश की प्रमुख स्थापित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों,नाटकों,लेखों,रेडियो नाटकों,रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन।आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।बाल कहानियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।वतन है हिन्दोस्तां हमारा(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का तारा“मौत के चंगुल में”(नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित बाल उपन्यास)“एक तमाशा ऐसा भी”(नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित बाल नाटक संग्रह)आदि बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह सफ़र 87 वर्ष की उम्र तक निर्बाध चला।

 

                                                

 

 

शनिवार, 22 अगस्त 2020

थंडरहिट और टाइम मशीन

 वरिष्ठ बाल साहित्यकार और मेरे पिता आदरणीय श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी ने अपने अंतिम दिनों में अपना दूसरा बाल उपन्यास मौत से दोस्ती लिखा था।दुर्भाग्य  यह बाल उपन्यास पिता जी के जीवनकाल में प्रकाशित नहीं हो सका था।मुझे इस उपन्यास का शीर्षक आपरेशन थंडरहिट ज्यादा ठीक और उपयुक्त लग रहा है ।इसलिए मैं पिता जी का यह उपन्यास आपरेशन थंडरहिट अपने ब्लॉग फुलबगिया पर सीरीज के रूप में प्रकाशित कर रहा।आज पढ़िए इस उपन्यास का तीसरा भाग)

3. थंडरहिट और टाइम मशीन

नील बचपन से ही बड़ा प्रतिभाशाली था।विज्ञान में उसकी विशेष रूचि थी। एक से बढ़कर एक मशीनेंउसकी कल्पना में आती रहती थी। इसके लिए वह अपने वैज्ञानिक मित्रों के साथ किसी न किसी प्रयोगशाला में डटा रहता।वे जो कल्पनाएं करते,उन्हें पूरी करने में जी-जान से जुट जाते।उसे पूरा करने के बाद ही उन्हें कुछ नया करने का संतोष मिलता, इसी तरह थंडरहिट का भी जन्म हुआ।

थंडरहिट एक अजीब महाशक्तिशाली मोटर बोट थी।एक चमत्कारी आविष्कार।वह न केवल पानी पर चलने वाली मोटर बोट थी,बल्कि पनडुब्बी की तरह घंटों पानी के भीतर रह सकती थी।हवा में उसे यान की तरह उड़ाया जा सकता था।

पहले उसे वन सीटर बनाने की बात थी।मगर नासा के अवकाश प्राप्त वैज्ञानिकों ने उसे टू सीटर बना दिया।इन वैज्ञानिकों की सलाह और सहयोग से ही थंडरहिट इतनी चमत्कारी बन सकी।इसमें अत्यंत शक्तिशाली 03 इंजन लगे हुए थे।उन्हें आवश्यकतानुसार एक साथ ही चलाने या एक ही इंजन से काम लेने की व्यवस्था थी।

वैज्ञानिकों ने उसमें एक रॉकेट लांचर भी फिट किया था।उसके लांचिंग पैड पर एक छोटा सा रॉकेट भी तैयार था।था तो वह छोटा,मगर बड़ा ही विनाशकारी।इसीलिए वैज्ञानिकों ने उसे किसी मुश्किल समय में उपयोग करने की अनुमति दी थी।वह भी उनकी पूर्व अनुमति लेकर,क्योंकि वे जानते थे कि इसका गलत प्रयोग हजारों निर्दोष प्राणियों की जान ले सकता है।

मगर सबसे अजीब उसमें एक और व्यवस्था थी।एक बटन दबाते ही,थंडरहिट के तीन मीटर के क्षेत्र में एक सुरक्षा कवच खड़ा हो जाता था।उसके भीतर वायु तक प्रवेश  नहीं कर सकती थी।यह सामान्य ईंधन के अलावा सौर ऊर्जा से भी चल सकती थी।इस थंडरहिट में पैराशूट भी लगा हुआ था,अन्यथा पृथ्वी की गुरूत्वाकर्षण शक्ति थंडरहिट को भारी नुकसान पहुंचा सकती थी।

नील की तरह ही राबर्ट भी बड़ा प्रतिभाशाली था।एक अच्छे वैज्ञानिक मस्तिष्क वाला।उसने एक ऐसी टाइम मशीन बनायी थी जो दुनियाभर के वैज्ञानिकों में चर्चा का विषय बन चुकी थी।इसमें भी उसने नासा के अवकाश प्राप्त वैज्ञानिकों की मदद ली थी।

इसका कम्प्युटराइज्ड राडार पटल हजारों लाखों किलोमीटर दूर से आने वाली ध्वनि तरंगों को पकड़ लेता था।सूक्ष्म से सूक्ष्म ध्वनि तरंगें उससे बचकर आगे नहीं बढ़ सकती थीं,चाहे वे किसी भी कूट भाषा में हों।उन्हें तुरन्त डी-कोड करने वाली मशीन लगी थी इस टाइम मशीन में।

इन्हीं ध्वनि तरंगों की मदद से वह भविष्य में घटने वाली घटनाओं का संकेत दे सकती थीं।अतीत की घटनाओं को पकड़ सकती थीं।यह सारे गुण उसमें लगे कम्प्युटर में थे।इस कम्प्युटर को बनाने में उसे दसियों प्रयोगशालाओं में काम करना पड़ा था।अनेक वैज्ञानिकों का सहयोग इस टाइम मशीन को फाइनल शक्ल देने में मिला हुआ था।इसीलिए नील और राबर्ट की यह जोड़ी सब जगह मशहूर हो चुकी थी।नील ने एक दिन हंसकर राबर्ट से पूछा-‘‘राबर्ट क्या मैं थंडरहिट का शक्ति परीक्षण कर सकता हूं ?”

‘‘क्यों नहीं।‘‘कहने को तो राबर्ट बोल गया,मगर वह भीतर से चकित था। आखिर नील करना क्या चाहता है ?क्यों उसने यह बात की थी।

‘‘राबर्ट,मैं अपने थंडरहिट को आकाश में ले जाना चाहता हूं।‘‘

इस बार राबर्ट भी मुस्कराकर बोला-‘‘नील क्यों मेरा सिर खा रहे हो ?

नील ने भी मुस्कराकर जवाब दिया-‘‘क्योंकि वह मुझे बड़ा टेस्टी लगता है।

राबर्ट गंभीर होकर बोला-‘‘मजाक छोड़ो,चलो कर लो परीक्षण लेकिन यह तो बताओ कि तुम आकाश में जाना किधर चाहते हो ?‘‘

‘‘मैं देखना चाहता हूं कि हिमालय की बर्फ से ढकी चोटियां थंडरहिट से कैसी नजर आती हैं।‘‘

सुनते ही राबर्ट का चेहरा गंभीर हो उठा।

‘‘क्या बात है राबर्ट ?‘‘नील थोड़ा उत्सुक हुआ।

‘‘जानते हो वह किसका क्षेत्र है ?

राबर्ट का यह प्रश्न सुनते ही नील समझ गया कि राबर्ट क्या चाहता है,फिर उसे अनेकों पुस्तकों में पढ़ी हुई बातें याद हो आईं।फिर भी पूछा-‘‘तुम्ही बताओ।

‘‘वह देवों के देव महादेव का क्षेत्र है।उस क्षेत्र से उनकी अनुमति के बिना एक चिड़िया भी नहीं गुजर सकती।‘‘

‘‘इतने शक्तिशाली हैं वे ?‘‘नील ने आश्चर्य से पूछा।

‘‘पहले वे मामूली इन्सान थे,मगर अपनी तपस्या और साधना के बल पर वे बन गये मृत्युंजय,देवों के भी देव।अब उनकी शक्ति को कोई चुनौती नहीं दे सकता।किसी ने दी भी तो उसने मुंह की खाई।वे परमपिता परमात्मा की शक्ति का अंश हैं जैसे हमारे क्राइस्ट और खुदा।

‘‘राबर्ट,यह कैलाशवासी शिव और उनकी महाशक्ति सब काल्पनिक बातें हैं।मुझे आश्चर्य है कि तुम्हारे जैसा वैज्ञानिक भी इन बातों पर विश्वास करता है?‘‘ कुछ ऐसा ही नील वाटसन से भी कहना चाहता था,मगर हिम्मत नहीं पड़ी।

‘‘नील मैं तुम्हें कोई प्रवचन नहीं दे रहा हूं।‘‘आगे राबर्ट ने करीब-करीब वही बातें कहीं,जो वाटसन ने कही थी।

राबर्ट बोला-‘‘तुम अवश्य जाओ।थंडरहिट का परीक्षण करो,मगर ध्यान रहे कि किसी भी तरह उस शक्ति की अवमानना नहीं होनी चाहिए।वे तुम्हें दंडित कर सकते हैं।पर नहीं करेंगे।वे बड़े क्षमाशील हैं।इसी से उनका नाम आशुतोष भी है।उनके क्षेत्र में प्रवेश

करने से पहले उन्हें प्रणाम अवश्य कर लेना।मेरे टाइम मशीन के कंपन संकेत दे रहे हैं कि........।‘‘कहता-कहता राबर्ट अचानक चुप हो गया।

नील चौंककर बोला-‘‘राबर्ट तुम कहते-कहते चुप क्यों हो गये।बताओ न तुम्हारी मशीन क्या संकेत दे रही है ?

     राबर्ट बोला,--“नील,तुम दो-तीन साल पहले भारत गये थे।उस समय वहां के कुछ मछुआरों से तुम्हारी दोस्ती हुयी थी।क्यों?”

हां।कृष्णन और अरुण स्वामी।मैं उस समय थंडरहिट बना रहा था।सुन कर वे मेरे दीवाने हो गये।कहने लगे,--“यहां अक्सर कोई न कोई तूफान आता रहता है।सैकड़ों मछुआरे उसमें फंस जाते हैं। आप साल में एक-दो बार यहां आ जाया करें।इससे हमें बड़ी राहत मिलेगी।मैं उनके प्रति वचनबद्ध हो गया।---हां,तुम्हारी टाइम मशीन?”

 

राबर्ट बोला-- मेरी मशीन उसी का संकेत दे रही है।तुम्हें उन्हीं के लिये बीच में लौटना पड़ सकता है।

उस विपत्ति से बचने के लिए तुम्हें महादेव शक्ति की तरंगे भेजेंगे।उन्हें सब पहले से ज्ञात है।वे हम लोगों का कोई अनिष्ट नहीं होने देंगे।

नील राबर्ट के इस लंबे-चौड़े भाषण से ऊब रहा था।उसका धैर्य जवाब दे रहा था।वह हंसकर बोला-‘‘राबर्ट अब मेरे पास वक्त नहीं है।चलो,तुम्हारी टाइम मशीन के संकेत सच हो सकते हैं,लेकिन यही तो मेरे थंडरहिट का शक्ति परीक्षण होगा।चलता हूं।

तुरन्त थंडरहिट बन्दूक से छूटी गोली की तरह ऊपर उठा और आकाश की ऊंचाइयों में खो गया।राबर्ट उस ओर देखता भर रहा।(क्रमशः)

                                     ०००

लेखक-प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव

11मार्च,1929 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म।31जुलाई2016 को लखनऊ में आकस्मिक निधन।शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम00।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी नौकरी।देश की प्रमुख स्थापित पत्र पत्रिकाओं सरस्वती,कल्पना, प्रसाद,ज्ञानोदय, साप्ताहिक हिन्दुस्तान,धर्मयुग,कहानी,नई कहानी, विशाल भारत,आदि में कहानियों,नाटकों,लेखों,तथा रेडियो नाटकों, रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन।

     आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।बाल कहानियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।वतन है हिन्दोस्तां हमारा(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का ताराआदि बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह सफ़र मृत्यु पर्यंत जारी रहा। 2012में नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया से बाल उपन्यासमौत के चंगुल में तथा 2018 में बाल नाटकों का संग्रह “एक तमाशा ऐसा भी” प्रकाशित।

    

                          

                       

गुरुवार, 30 जुलाई 2020

खण्डहर के शैतान

(आज 31 जुलाई को मेरे पिता जी प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार आदरणीय प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी की पुण्य तिथि है।2016 की 31 जुलाई को ही 87 वर्ष की आयु में उन्होंने दुनिया को अलविदा कह दिया था।इस बार कोरोना संकट को देखते हुए मैं उनकी स्मृति में कोई साहित्यिक आयोजन भी नहीं कर पा रहा।इसी लिए आज यहाँ मैं पिता जी की एक अप्रकाशित कहानी प्रकाशित कर रहा।उनकी रचनाओं को पाठकों तक पहुँचाना ही उनके प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।–डा0 हेमन्त कुमार)    

                     (ग्रामीण परिवेश की बाल कहानी)

खण्डहर के शैतान----।

                  

                            गांव से बाहर एक बड़ा सा खंडहर था।खंडहर को देखने से लगता था कि कभी वहां बड़ा सा परिवार रहता होगा।मगर आज चरवाहे तक उसके पास जाने से डरते थे।दिन भर तो वहां सन्नाटा पसरा रहता था।मगर रात होते ही खंडहर में से तरह की आवाजें आने लगती थीं।कभी सीटी बजने की,कभी घंटियों की टिनटिन टुनटुन,कभी किटकिट कुटकुट जैसे दांतों से दांत रगड़े जा रहे हों।सुन कर ही गांव वाले सहम जाते।घर से बाहर निकलने तक का साहस न होता।

                    गांव के बड़े बूढ़े बताते हैं कि एक बार किसी बड़े मेले में पूरा परिवार गया हुआ था।अचानक वहां भगदड़ मच गई।हजारों लोग मारे गये।शायद वो लोग भी उस भगदड़ में कुचले गये।क्योंकि फ़िर कोई लौट कर नहीं आया।गांव के पुरनिया लोग बताते हैं कि इस तरह की अकाल मृत्यु में वे प्रेत या शैतान बन जाते हैं।वे ही लोग अब शैतान बन कर अब अपने इस खंडहर में रह रहे हैं।इस तरह की आवाजें निकाल कर वो लोगों को सावधान करते हैं---कोई उनकी शान्ति भंग करने के लिये खंडहर के निकट न आये।

          जब से ये शैतान उस खंडहर में आये गांव में एक अजीब बात  शुरू हो गयी।लोगों की रसोईं या कहीं और कुछ भी खाने का सामान रखा रहता वह रात में ही सफ़ाचट हो जाता।जबकि उनके घर में न ही कोई चूहा दिखता न ही बिल्ली।जब चूहे ही नहीं थे तो बिल्ली कहां से आती।लोग सोचते-क्या खण्डहर वाले शैतान ही आकर सब कुछ सफ़ाचट कर जाते हैं।कुछ लोग कहते—“भैया भूत,प्रेत या शैतानों को कहां भूख प्यास लगती है।”

       इधर लोग जितना ही परेशान थे उतना ही खण्डहर में रहने वाले मजे ले रहे थे।पूरे खण्डहर पर उनका साम्राज्य था।उनके राजा रानी थे,प्रजा थी,गुप्तचर थे,सेना के छापामार दस्ते थे।उनकी छापामार सेना रात होते ही भोजन की लूटपाट करने गांव में पहुंच जाती।खण्डहर से लेकर गांव तक में गुप्तचर फ़ैल जाते।कहीं कोई खतरा तो नहीं है।यहां खण्डहर में बचे लोग अपनी ड्यूटी में सक्रिय हो जाते। बाजार से चुरा कर लाई गई सीटियां और घण्टियां बजने लगतीं।

                      प्रशिक्षित लोग अपने दांतों से कुटकुट और किटकिट की ध्वनियां करने लगते।गांव वाले डर से सहम कर अपने घरों में दुबक जाते।इधर घरों में छापामार सैनिक पूरी ताकत से टूट पड़ते।देखते ही देखते जो भी मिला सफ़ाचट। लोग अपने बिस्तरों में ऐसे दुबके रहते कि किसी आहट पर भी बाहर निकल कर न देखते।स्वयं पेट भरने के बाद वे अपने साथियों के लिये भोजन पीठ पर भी लाद लेते। सबके खण्डहर में लौट आने के बाद सारी आवाजें भी बंद हो जातीं।

         अचानक एक दिन खण्डहर के पास से एक बारात गुजरी।शैतान मँडली छिप कर बाजे-गाजे और रोशनी का आनन्द उठाने लगी।एक शैतान कुछ ज्यादा ही फ़ितरती दिमाग का था।वह राजा से बोला—“राजा जी,तमाशा तो बड़ा अच्छा था।

      राजा सब जानता था।हंस कर बोला—“यह तमाशा नहीं,बारात थी।

      वह शैतान बोला—“क्यों न हम लोग भी एक दिन ऐसे ही बारात निकालें?

      अरे मूर्खों,अभी तक हम लोग दुनिया की नजर से यहां छिपे हुये हैं।हमने ऐसा किया तो दुनिया हमारे बारे में सब कुछ जान जायेगी।बाहर हमारे कम दुश्मन हैं?कुत्ते बिल्ली से लेकर इंसान तक हमारी जान के प्यासे रहते हैं।अपनी इस खण्डहर की दुनिया में चुपचाप पड़े रहो।खाओ,पिओ और मौज करो।राजा ने उन्हें समझाया।

        लेकिन कहा गया है कि विनाश काले विपरीत बुद्धि।कुछ शैतान अपनी सनक से बाज नहीं आए।बारात न सही,अपनी बस्ती को ही झंडी आदि से सजाया जा सकता है।उसके लिये जरूरत का सामान वे कुछ घरों में देख चुके थे।

         अगले दिन गांव के एक छात्र लाल चंद को स्कूल का अपना एक प्रोजेक्ट पूरा करने के लिये गोंद की जरूरत पड़ी।मगर पूरे घर में कहीं भी गोंद का पैकेट नहीं मिला।इसी तरह गोकुल की मेज पर से रंगीन कागजों की सारी सीट ही गायब थी। विशाल के पापा को सुतली की जरूरत पड़ी तो सुतली की पूरी लुंड़ी ही गायब थी। लाल चंद,गोकुल,विशाल अपने घरों के आसपास भी ढूंढ़ने लगे,अचानक उन्हें कुछ दूरी पर सुतली का कुछ हिस्सा दिखाई पड़ा।उसका एक सिरा खण्डहर की ओर गया हुआ था।वे लोग समझ नहीं पाए कि माजरा क्या है।

            दिन का वक्त होने से वे निडर होकर खण्डहर की ओर चल पड़े।यहां उन्होंने जो दृश्य देखा उसे देख वो दंग रह गये।सैकड़ों चूहे दौड़ दौड़ कर झंडी बनाने और टांगने में लगे हुये थे।तीनों ने फ़ौरन ही गांव वालों को ये खबर दी।गांव वालों ने भी आकर वह तमाशा देखा।वो समझ गये कि खण्डहर के शैतान और कोई नहीं ये चूहे ही थे।शैतानों की सारी पोल पट्टी खुल गई।

          देखते ही देखते लोग खण्डहर की सारी बिलों को खोदने लगे।उनमें उन्हें सीटियां और घंटियां भी मिल गयीं।चूहों की इस सूझ बूझ से सब चकित रह गये।

            कहते हैं कि अपना बसेरा छिन जाने पर तबसे चूहे इंसानों के घरों में ही रहने लगे। लेकिन अब वे खण्डहर के शैतानों से भी ज्यादा खुराफ़ाती हो गये थे। पहले वे केवल भोजन सामग्री से मतलब रखते थे,मगर अब तो वे घर की किताब कापियों से लेकर कपड़े लत्ते तक कुतरने लगे।लेकिन अब तो कुछ हो भी नहीं सकता था।उन्हें बेदखल करके खण्डहर को खेत बना दिया गया था।आखिर बेचारे जाते भी तो कहां।

    अब तो इंसानों के घरों में रहते हुये भी वे उनकी पकड़ से दूर उनके साथ आंख मिचौली खेलते हैं चूहेदानी को मुंह चिढ़ाते हैं।उन्हें मारने के लिये रखी गयी जहर की गोलियों से फ़ुटबाल खेलते हैं।उनकी तो हर तरफ़ से बल्ले बल्ले।

 राजा ने एक दिन उनसे मुस्कराकर पूछा,--- कहो भाइयों,कैसी कट रही है?

 पूरी दुनिया की शैतान मण्डली ने एक स्वर से चिल्ला कर कहा—“हिप हिप हुर्रे।

                                  000

 

लेखक-प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव

11मार्च,1929 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म।31जुलाई2016 को लखनऊ में आकस्मिक निधन।शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम00।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी नौकरी।देश की प्रमुख स्थापित पत्र पत्रिकाओं सरस्वती,कल्पना, प्रसाद,ज्ञानोदय, साप्ताहिक हिन्दुस्तान,धर्मयुग,कहानी,नई कहानी, विशाल भारत,आदि में कहानियों,नाटकों,लेखों,तथा रेडियो नाटकों, रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन।

     आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।बाल कहानियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।वतन है हिन्दोस्तां हमारा(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का ताराआदि बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह सफ़र मृत्यु पर्यंत जारी रहा। 2012में नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया से बाल उपन्यासमौत के चंगुल में तथा 2018प्रकाशित।

 

 


मंगलवार, 10 मार्च 2020

बाल कहानी--गुड़िया का उपहार


आज प्रतिष्ठित कहानीकार,रेडियो नाट्य लेखक,बाल साहित्यकार, मेरे पिताजी आदरणीय श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी का 91वां जन्म दिवस है।उन्होंने प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य,रेडियो नाटकों के साथ ही साहित्य की मुख्यधारा में बड़ों के लिए भी 300 से ज्यादा कहानियां लिखी हैं जो अपने समय की प्रतिष्ठित पात्र-पत्रिकाओं—सरस्वती,कल्पना,ज्ञानोदय, कहानी,नई कहानी,प्रसाद आदि में प्रकाशित हुयी थीं।पिता जी को स्मरण करते हुए आज मैं यहाँ उनकी एक बाल कहानी “गुडिया का उपहार”कहानी बाल पाठकों के लिए प्रकाशित कर रहा हूं।       


गुड़िया का उपहार
          प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव

          नाम तो था उसका गौरी।लेकिन मां पापा कभी कभी प्यार से उसे गुड़िया भी बुला बैठते।धीरे धीरे उसका यही नाम अधिक चलन में आ गया।
          गुड़िया हमेशा अपनी कक्षा में प्रथम आती।उसकी उम्र थी केवल दस बारह साल।मगर भगवान ने उसे बुद्धि के साथ गजब की सुन्दरता भी प्रदान की थी।उसकी इन बातों की चर्चा गांव के बाहर तक फ़ैल चुकी थी।मां पापा को भी गर्व थाभगवान चाहेगा तो गुड़िया की शादी किसी अच्छे घर में होगी।
       लेकिन गुड़िया को सपने में भी नहीं विश्वास था कि उसकी आगे पढ़ने की इच्छाएं बीच में ही उसका साथ छोड़ने लगेंगी।अपनी पढ़ाई के बल पर वह इंजीनियर, डाक्टर या कोई अफ़सर बनकर अपने मां पापा का नाम रोशन करेगी।ब्याह भी करेगी लेकिन उसका सही वक्त आने पर।एक दस बारह साल की लड़की इतना तो सोच ही सकती थी।
      उस दिन वह कुछ पूछने मां के पास जा रही थी।अचानक उसके कानों में अपनी मां और पापा के कुछ बातें करने की भनक पड़ी।बात ही कुछ ऐसी थी कि गुड़िया के पांव अपनी जगह ठिठक गये।
    मां पापा से कह रही थी—“पड़ोस के एक बड़े परिवार से गुड़िया के विवाह का प्रस्ताव आया है।वो पढ़ाई से ज्यादा उसकी सुन्दरता पर मुग्ध हैं।
    पर गौरी की मां,इतनी कच्ची उम्र में तुमने उसकी शादी की बात सोची भी कैसे?गुड़िया जैसी तेज लड़की की पढ़ाई का क्या होगा?उसके सामने एक सुन्दर भविष्य है।वह इसका विरोध भी तो कर सकती है।पापा बोले।
    देखो जी,लड़कियों की पढ़ाई से ज्यादा उसका रूप गुण होता है।हमारी सीधी सादी गुड़िया।उसमें विरोध करने का साहस क्या आएगा।सोच लो,फ़िर इतने बड़े परिवार से आगे रिश्ता मिले,ना मिले।मां बोली।
    यह सब ठीक है।पर तुम्हारी बात मेरे गले से नीचे नहीं उतर रही है।मुझे सोचने का मौका दो।मैं तो उसके एक खूब सुखद भविष्य का सपना लिये बैठा हूं।
    तुम्हारी तो यह पुरानी आदत है।हर अच्छी बात के लिये तुम्हें सोचने का मौका चाहिये।सोचते रहो।कह कर झल्लाते हुए मां उठ खड़ी हुई।गुड़िया भी जल्दी से दूसरी ओर खिसक गयी।
      गुड़िया के मन में उथल पुथल मच गई।अगर उसके पापा भी मां की बात मान गये तो क्या होगा उसके कल का।अन्त में उसके मन में एक विचार अया।
        वह सीधे मां के पास जाकर बोली-“मां,हर मां बाप अपने बच्चों के लिये अच्छा ही सोचते हैं।
          मां प्रसन्नता से बोली- तू सच कह रही है गुड़िया।मेरी बिटिया रानी कितना अच्छा सोचती है।
          तब मां तुम भी मेरी एक बात मान लो।दो साल बाद ही तो मैं हाई स्कूल कर लूंगी।इसके लिये तुम बस दो साल का समय मांग लो वो जरूर मान जायेंगे।
   मां को भी गुड़िया की बात सही लगी।वह कम से कम हाई स्कूल तो कर ही ले।बाद में कहां पढ़ाई होती है।और इस तरह उन्होंने गुड़िया की बात मान ली।
  गुड़िया मां से लिपट गई।यही तो वह चाहती थी।दो साल बहुत होते हैं।वह अवश्य इस बीच कोई योजना बना लेगी।
  गुड़िया पूरी लगन और मेहनत से पढ़ाई में जुट गयी।टीचरों से भी उसे भरपूर सहयोग मिलने लगा।हाई स्कूल की परिक्षा भी गुड़िया ने बड़े उत्साह से दी।
  कुछ ही समय बाद हाई स्कूल परीक्षा का परिणाम निकला।गुड़िया बोर्ड की परिक्षा   
की मेरिट लिस्ट में थी।वह भी अच्छे रैंक से।मां पापा फ़ूले नहीं समाये।
    पापा ने मुस्कराते हुये मां से पूछा--अब गुड़िया की आगे की पढ़ाई के बारे में क्या सोचती हो?
  यह सब देख मां का मन भी बदल रहा था।अब वह भी ऐसी होनहार गुड़िया के साथ अन्याय नहीं करना चाहती थी।मगर वो चिंता से बोली- गुड़िया की आगे की सारी पढ़ाई तो शहर में होगी।हम उसका खर्च कैसे उठा पायेंगे।
       इसी सोच विचार में दो तीन दिन बीत गये।तीसरे दिन गुड़िया के स्कूल का चपरासी एक लिफ़ाफ़ा ले कर आया।पापा ने उसे खोलकर पत्र पढ़ा।वह शहर के सबसे बड़े कालेज के प्रिंसिपल का था।उन्होंने गौरी को लिखा था-गौरी तुम हमारे कालेज में पढ़ना चाहोगी तो तुम्हारा स्वागत है।हमारे यहां डिग्री क्लास तक पढ़ाई होती है। हास्टल भी है।हास्टल में रहने खाने और कालेज की पढ़ाई का पूरा खर्च हम उठाएंगे।
मां और पापा की खुशी का ठिकाना न रहा।लेकिन मां ने शंका जतायी-इतने बड़े शहर में हमारी गुड़िया रहेगी कहां?
  पापा खिलखिला कर हंस पड़े और बोले-तुम रहती किस युग में हो?आजकल तो लड़कियां सेना में भर्ती हो रही हैं।वायु सेना में सारा आकाश छान रही हैं।हास्टल में सैकड़ों लड़कियां उसकी दोस्त होंगी। वह कालेज की हजारों लड़कियों के बीच पढ़ेगी।
    गुड़िया बोली-याद है न।मैंने कहा था—एक दिन मैं तुम लोगों के लिये ऐसा उपहार लेकर आऊंगी कि तुम्हें अपनी आंखों पर विश्वास नहीं होगा।
और पापा गुड़िया का दाखिला उसी कालेज में करा आये।
   गुड़िया ने वहां भी अपने टैलेण्ट का जलवा बिखेरना शुरू कर दिया।जिसकी भी जबान पर देखो बस गुड़िया का नाम।उसने यहां भी इण्टर सम्मान के साथ पास किया।तब एक दिन प्रिंसपल ने गुड़िया को बुला कर पूछा-आगे के लिये तुम्हारा क्या विचार है?
  गुड़िया तुरन्त बोली-मैडम मैं तो पुलिस या सेना की नौकरी में जाना पसंद करूंगी।देश और समाज की सुरक्षा वाला कोई जाब।मगर मेरी मां के कानों तक यह बात न पहुंचे। नहीं तो वो मुझे इसकी इजाजत कभी भी नहीं देंगी।पापा का मुझे कोई डर नहीं है।
     प्रिंसिपल के मुंह से फ़ौरन निकला- शाबाश गुड़िया मैं तुम्हारे फ़ैसले से बहुत खुश हूं लेकिन उसके लिये  पहले तुम बी00 कर लो।
जहां चाह वहां राह।गुड़िया बी00 के बाद ही पुलिस अधिकारी की ट्रेनिंग के लिये चुन ली गई।
   एक दिन पुलिस की एक जीप गुड़िया के दरवाजे पर आकर रुकी।पूरे गांव में खबर फ़ैलते देर नहीं लगी।मास्टर जी,गुड़िया के पापा के दरवाजे पर पुलिस--मगर क्यों?सारा गांव देखने के लिये उमड़ पड़ा।तभी गुड़िया की मां घबरायी हुयी बाहर निकली।पापा तो सब जानते थे तभी मुस्करा रहे थे।
        मां बोली-तुम्हें मुस्कराने की सूझ रही है।पुलिस की गाड़ी देख कर मेरी तो जान सूखी जा रही है।
   तभी पुलिस अधिकारी की चमचमाती हुयी वर्दी में एक महिला जीप से नीचे उतरी।जब उसने आगे बढ़ कर उनके पांव छुए तब उन्होंने पहचाना—अरे यह तो अपनी गुड़िया है।उन्होंने उसे गले से लगा लिया।
गुड़िया बोली— मां मैंने तुमसे वादा किया था न कि तुम लोगों के लिये एक सुन्दर सा उपहार लेकर आऊंगी।क्यों पसन्द आया? 
   मां और पापा के ही नहीं पूरे गांव की आंखों में प्रसन्नता के आंसू आ गये।सभी को गर्व था—उनकी बेटी ने वह कर दिखाया जो अभी तक गांव की किसी बेटी ने नहीं किया।
  तभी गुड़िया  लौटने को हुयी और मां से बोली— अभी मैं ट्रेनिंग में हूं मां।कहीं भी ज्वाइन करने से पहले तुम लोगों के पास रहने आऊंगी।अभी तो मुझे यह सरप्राइज उपहार देना था।
    धूल उड़ाती जीप निकल गयी तब मां को एहसास हुआ—भगवान ने उन्हें अपनी गुड़िया के साथ अन्याय करने से बचा लिया।शायद यही उपहार पाने के लिये।
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लेखक-प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
11 मार्च, 1929 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म। 31 जुलाई 2016  को लखनऊ में आकस्मि निधन।शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम00।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी नौकरी।देश की प्रमुख स्थापित पत्र पत्रिकाओं सरस्वती,कल्पना, प्रसाद,ज्ञानोदय, साप्ताहिक हिन्दुस्तान,धर्मयुग,कहानी, नई कहानी, विशाल भारत,आदि में कहानियों,नाटकों,लेखों,तथा रेडियो नाटकों, रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन।
     आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।बाल कहानियों, नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।2012में नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया से बाल उपन्यासमौत के चंगुल में तथा 2018 में बाल नाटकों का संग्रह एक तमाशा ऐसा भी” प्रकाशित। इसके पूर्व कई प्रतिष्ठित प्रकशन संस्थानों से प्रकाशित वतन है हिन्दोस्तां हमारा(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का ताराआदि बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इलाहाबाद उत्तर प्रदेश के शिक्षा प्रसार विभाग में नौकरी के दौरान ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस-पास शुरू हुआ लेखन का यह क्रम जीवन पर्यंत जारी रहा