(आज 11 मार्च को मेरे पिता स्व० श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी का जन्म दिवस है।इस अवसर पर उन्हें स्मरण करते हुए उनकी यह कहानी आप सभी पाठकों के लिए।)
झुमरू का बेटा
लेखक--प्रेमस्वरूप
श्रीवास्तव
झुमरू हमारे यहाँ हलवाहा था।उसका बेटा था नकुल।गाँव के जूनियर हाईस्कूल में नकुल और मैं एक ही कक्षा में पढ़ते थे।स्कूल में नकुल का नाम नकुलचन्द था।लेकिन मेरी माँ उसे नक्कू ही पुकारती थी।जब भी माँ उसे नक्कू कह कर बुलातीं मै उन्हें तुरन्त टोकता-“ माँ यह नक्कू नहीं नकुल है।स्कूल में इसका नाम नकुलचन्द है।”
“अरे चलचल, बड़ा आया नाम वाला।है तो झुमरू का ही बेटा न, नक्कू।होगा स्कूल में इसका नाम नकुलचन्द।” माँ चिढ़ कर उत्तर देती।
नकुल मेरा सहपाठी ही नहीं, मेरा अच्छा दोस्त भी था।पढ़ाई में बहुत तेज।वह मेरे साथ खेलता।हम साथ साथ घर पर पढ़ने भी बैठ जाते।कभी कभी वह हमारे यहाँ ही खाना भी खा लेता। मगर मुझे खाना थाली में दिया जाता, उसे पत्तल में।दरवाजे पर महुआ का पेड़ था।झुमरू रोज उसके पत्ते तोड़ कर पत्तल बनाता।बाप बेटे उसी पर साथ साथ खाते थे।आँगन के एक कोने में जमीन पर बैठ कर।खाने के बाद झुमरू उस जगह को पानी से लीप देता था।
मां मुझे बहुत प्यार करती थी।इसीलिये मुझे
नकुल के साथ खेलने पढ़ने से तो नहीं मना करती थीं।मगर वे इसका बड़ा ध्यान रखती थीं
कि मेरे और नकुल के बीच एक दूरी अवश्य बनी रहे।मालिक और मजदूर की।शायद ऊँच नीच की
भी।वे उसके हाथ का पानी नहीं पीती थीं।
पर यह सब जानते
हुए भी नकुल माँ का बड़ा आदर करता था।वे जब उसे बुलातीं वह अपने सारे काम छोड़ दौड़
पड़ता।मैं खीझता तो वह मुझे समझाता --“ देख रमेश, इससे क्या होता
है।मन से तो वे मुझे प्यार ही करती हैं।”
मेरे पिता जी शहर में नौकरी करते थे।हफ्ते में एक दिन के लिए घर आते थे।गाँव में हम लोगों की अच्छी खेती बारी थी।माँ इसके मोह जाल में फँस कर पिताजी के साथ शहर में रहने के लिए तैयार नहीं थीं।इसीलिए मुझे भी माँ के साथ ही रहना पड़ा।
समय ऐसे ही बीत रहा था।देखते न देखते वह दिन भी आया कि नकुल और मैंने गाँव के स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली।पढ़ाई के प्रति नकुल की लगन देख पिता जी ने मेरे साथ ही उसका नाम भी शहर के कालेज में लिखवा दिया।पर आगे चल कर हम लोगों को अलग होना पड़ा।वह मेडिकल की पढ़ाई करने दूसरे शहर चला गया।मैं प्रशासनिक सेवा की तैयारी करने लगा।
माँ को अब भी अपने गाँव के घर, जमीन, जायदाद का मोह जकड़े हुए था।इसीलिए घर नहीं छोड़ा। उनकी सेवा के लिए पिता जी ने एक नौकरानी लगा दी।बीच बीच में कभी मैं, कभी पिताजी उनके पास पहुँच जाते थे।
बहुत दिनों से मैं न तो नकुल से मिल पाया, न उसका कोई हालचाल मिला।एक दिन सुना कि वह डाक्टर बन गया है।मगर उसने शहर में प्रैक्टिस करने के बजाय अपने गाँव में ही एक दवाखाना खोल लिया है।सुन कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।
इस बार गाँव आने
पर नकुल से मेरी भेंट हुई।मैंने उसे गले लगाते हुए कहा --“ नकुल, गाँव में अपना
दवाखाना खोलने के तुम्हारे फैसले से मैं बहुत खुश हूँ।आज लोग डाक्टर बनते ही पैसों
के पीछे भागने लगते हैं।इसीलिए वे शहरों में ही अपना नर्सिंग होम खोलने या सरकारी
नौकरी में आने का लालच नहीं छोड़ पाते।अपने देश का बड़ा हिस्सा गाँवों में ही बसता
है।यहाँ सरकारी दवाखाने हैं पर वे अपर्याप्त हैं।तुम गाँव के लिए कुछ करोगे तो यह
सब से बड़ी देश सेवा होगी।अब मैं भी माँ की ओर से निश्चिन्त रहूँगा।”
“अरे यह भी कोई कहने वाली बात है।वे तो मेरी भी माँ हैं।” नकुल मुस्करा कर बोला।
लेकिन जब माँ ने
सुना तो वे बड़बड़ायीं --“ अरे वाह, झुमरू का बेटा गाँव में डाक्टरी करने आया है। भला
वह किसी केा क्या ठीक करेगा।कौन खायेगा उसके हाथ की दवा।”
लेकिन इसके विपरीत नकुल बराबर उनका हालचाल लेने पहुँच जाता।उनकी कोई तकलीफ सुनता तो उसकी दवा दे जाता।मगर माँ उसके जाते ही उस दवा को किसी कोने में फेंक देती।
एक दिन नकुल ने देखा-- माँ को ज्वर है।उसने तुरन्त उनके लिये दवा भिजवा दी।मगर माँ ने हमेशा की तरह उसे भी फेंक दिया।
अगले दिन नौकरानी
दौड़ती हुई नकुल के पास आयी और बोली-“ डा०साहब, माँ जी को बड़ा तेज बुखार है।उन्हें सुध बुध नहीं है।”
नकुल तुरन्त दवा का बैग ले कर दौड़ पड़ा।माँ का शरीर तवे की तरह तप रहा था।वे अचेत थीं। नकुल नें उन्हें इन्जेक्शन लगाया।फिर माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखने लगा।
कुछ समय बाद माँ
को आराम मिलता दिखायी दिया।उनकीं पलकें धीरे धीरे खुलने लगीं।थोड़ी देर बाद वे पूरी
तरह होश में आ गईं।उन्होंने आँखे खोली तो देखा-- नकुल उनके पास बैठा माथे पर पानी
की पट्टी रख रहा था वे सब समझ गईं।उनकी आँखें डबडबा आयीं।काँपते होठों से बस दो ही
शब्द निकले-- “ बेटा नकुल।”
“ हाँ माँ, मैं वही आपका नक्कू हूँ, झुमरू का बेटा।” नकुल बोला।
“ नहीं तू तो मेरा बेटा नकुलचन्द है रे।”
“ नहीं माँ, मुझे नक्कू ही रहने दो।बड़ा प्यारा लगता है यह छोटा सा नाम।नकुलचन्द--- बाप रे बाप, इतने भारी भरकम नाम का बोझ मैं नहीं उठा पाऊँगा माँ।” कहकर नकुल खिलखिला पड़ा।
मां भी हँस पड़ी।पर तभी उनकी आँखे एक बार फिर नम
हो आयीं।वे भर्राए गले से बोलीं-“नकुल, मैंने कभी भी तुझे झुमरू के बेटे से अधिक कुछ
नहीं माना।तेरे भीतर छिपे हुए हीरे को मैं कभी नहीं जान पायी।मुझे माफ कर दे बेटा।”
“ नहीं माँ, भला कोई माँ अपने बेटे से ऐसा कहती है।एक ओर मुझे बेटा कहती हैं, वहीं दूसरी ओर मुझ से माफी भी माँग रही हैं!नहीं माँ, नहीं।” कहते हुए नकुल ने अपना हाथ माँ के होठों पर रख दिया।
माँ नकुल के हाथ
को अपनी दोनों हथेलियों के बीच दबाती हुई बोली-“ पहले मैं सोचती थी, कितना बड़ा मूर्ख है तू।लोग डाक्टर बन कर शहर में कमायी करते हैं।गाँव में भला
क्या रखा है।पर नहीं, मैं गलत थी।”
“माँ, मैं पैसों के लिए इस पेशे में नहीं आया।यहाँ
गाँव को मेरी ज्यादा जरूरत थी।यहाँ पैसा भले न हो, मगर लोगों का प्यार है।पैसे से आदमी जी तो लेता है, मगर दिल को सुकून तो प्यार से ही मिलता है।”माँ उसे एकटक
देखे जा रही थीं।नकुल सोच रहा था-- गाँव में अपना दवाखाना खोलना आज सचमुच सफल हो
गया।
०००००००
लेखक--प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
11मार्च,1929 को
जौनपुर के खरौना गांव में जन्म।
31जुलाई 2016 को
लखनऊ में आकस्मिक निधन।
शुरुआती पढ़ाई
जौनपुर में करने के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर
प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी नौकरी।पिछले छः दशकों से
साहित्य सृजन मे संलग्न।देश की प्रमुख स्थापित पत्र-पत्रिकाओं में
कहानियों,नाटकों,लेखों,रेडियो नाटकों,रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल
साहित्य का प्रकाशन।आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित नाटकों एवं कहानियों
का प्रसारण।बाल कहानियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।“वतन है हिन्दोस्तां हमारा”(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)“अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का तारा”“मौत के चंगुल में”(नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा
प्रकाशित बाल उपन्यास)“एक तमाशा ऐसा भी”(नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित बाल
नाटक संग्रह)आदि बाल साहित्य
की प्रमुख पुस्तकें।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक
वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह सफ़र 87
वर्ष की उम्र तक निर्बाध चला।
अच्छी कहानी। पिताजी को सादर नमन।
जवाब देंहटाएंबहुत सुंदर व जीवटता से भरी कहानी।
जवाब देंहटाएंप्रेमस्वरूप जी को शत शत नमन।
नई रचना
Nice blog, keep it up
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