शनिवार, 14 मार्च 2009

घर की खोज



जंगल में सबसे अच्छा घर था चुनमुन खरगोश का.जितना प्यारा चुनमुन उतना ही प्यारा घर.एक दिन रामू हाथी घूमने निकला.उसने चुनमुन का घर देखा.उसे लगा उसका भी घर होना चाहिए.चुनमुन के घर जैसा.
रामू ने चुनमुन से कहा,“आज से मैं यहीं रहूँगा.तुम्हारे घर में.”
“क्या मेरे घर में?पर मेरा घर तो छोटा है.”चुनमुन चौंक कर बोला.
रामू ने चुनमुन के घर को फ़िर ध्यान से देखा.एक बार बांयी ओर से.दूसरी बार दांयी ओर से.उसे बात कुछ समझ में आयी.
वह सूंड हिलाता हुआ आगे बढ़ गया.
रामू पहुँचा चींटियों के बिल के पास.उसने बिल के अन्दर झाँकने की कोशिश की.चींटियों ने उसे समझाया.तुम बहुत बड़े हो.बड़ा घर ढूंढो.
वह थोड़ा और आगे बढ़ा.सियार की मांद रामू को काफी बड़ी लगी.रामू ने पूरी मांद का चक्कर लगाया.पर वहां भी उसकी दाल नहीं गली.सियारों ने उसे समझाया,“रामू भइया तुम काफी मोटे हो.कोई बड़ा घर ही खोजो.”
रामू ने गुस्से से मुंह बिचकाया,पैर पटका और आगे बढ़ गया.
अब रामू खड़ा था एक घने पेड़ के नीचे.एक बया ने घोसले से झांक कर रामू को देखा और बोली,“रामू भाई मुझे तंग मत करो.सोने दो.”
“कोई मुझे अपना घर देना नहीं चाहता.मैं एक एक से बदला लूँगा.”रामू गुस्से में बुदबुदाया.वह आगे बढ़ चला.
रामू ने देखा कुछ छोटे चूहे बिल के बाहर खेल रहे हैं.
“हुंह..बिल भी कोई रहने की जगह है.”उसने सोचा और अपने बड़े बड़े कान हिलाता हुआ वहां से चल दिया.
अब रामू ने सोचा शेर तो बड़ा होता है.क्यों न उसका भी घर देख लिया जाए.रामू चल पड़ा शेर की गुफा की ओर.गुफा खाली थी.रामू ने सोचा मौका अच्छा है.वह तेजी से गुफा के अन्दर घुसा.पर यह क्या?गुफा में उसकी पीठ फंस गयी.अब न वह आगे जा पा रहा था न पीछे.बहुत कोशिश करने के बाद वह किसी तरह से बाहर आया.
बाहर आकर उसने खुली हवा में साँस ली .अपना पसीना सुखाया.अब तक रामू समझ चुका था कि उसका घर खुले मैदान में ही है.वह चल पड़ा नदी की ओर अपनी थकान मिटाने के लिए.
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हेमंत कुमार

5 टिप्‍पणियां:

  1. हाथी दादा चले ढूँढने,

    घर अपना प्यारा-प्यारा।

    रैन बसेरे की आशा मे,

    छान लिया जंगल सारा।।


    घर नही पाया ऐसा,

    जिसमे तोंद-पैर आ जाते।

    थक-कर आखिर अब तक,

    पेड़ों के नीचे ही सुस्ताते।

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  2. नन्हे साथियों के लिए मनभावन कहानी!

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  3. इस कहानी पर डॉ. रूपचन्द्र शास्त्री मयंक द्वारा रची गई उक्त कविता भी कम अच्छी नहीं है!

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  4. वर्तमान में बल कहानिया लगभग उपेक्षित हो रही है /कारण या तो बच्चे बच्चे नहीं रहे और साहित्यकार न जाने किन किन विमर्श में व्यस्त हैं /ऐसे में आपका लेखन सराहनीय है

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  5. मेरे ब्लाग के प्रेरणास्रोत भाई रावेन्द्र जी।
    मैं तो मात्र टिप्पणी ही करता हूँ।
    कैसी पंक्तियाँ बन गयी इसका आकलन
    तो आप बाल साहित्यकार ही कर सकते हैं।
    फुलबगिया पर मुझे बाल-कहानी अच्छी लगी।
    बस उस पर टूटे-फूटे शब्दों में एक तुकबन्दी कर दी।
    यह आपको अच्छी लगी।
    धन्यवाद।

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