मंगलवार, 1 अप्रैल 2014

बाल-नाटक--- वन की पुकार

पात्र
1 पेड़: आम, महुआ, शीशम, पीपल, सेव, लीची
2 वन देवता, वन देवी
3 ज्वाला, भैरव, सुरेश
4 पशु: शेर, हाथी, हिरन

संकेत
(अभिनय के लिए पेड़ों का अभिनय करने वाले पात्र अपने शरीर पर उस पेड़ विशेष के पत्ते धारण करें, जिसका वे अभिनय कर रहे हैं, इसी प्रकार मुखौटे लगा कर पशुओं का अभिनय करना ठीक रहेगा)
(पहला दृश्य)
(मंच के ऊपर विभिन्न पेड़ पौधे इस तरह उगे हुए दिखाई पड़ते हैं कि वन जैसा लगता है।इन्हीं के बीच घायल पड़ा हुआ आम कराह रहा है।)
आम--(कष्ट से) मनुष्य के स्वार्थी हाथों ने मुझे कुल्हाड़े से काट कर गिरा दिया है।मेरी डालियों पर आराम करने वाले पक्षियों, अब मैं तुम्हें कैसे शरण दे सकूंगा। आह, धूप से परेशान यात्रियों को अब मेरी छाया तक न मिल सकेगी।(सिसकता है)
(शीशम का प्रवेश)
शीशम-- आम भैया !
आम-- कौन ? शीशम भाई ! आओ, मेरा शरीर टुकड़े, टुकड़े होकर बिखरा पड़ा है।मैं अब तुम्हें अपनी छाती से भी नहीं लगा सकता।
शीशम--यह बहुत बुरा हुआ।आदमी के पापी हाथ अब हमें नष्ट करने पर तुले हुए हैं।
(महुआ का प्रवेश)
महुआ--मगर उसे नहीं मालूम कि ऐसा करके वह स्वयं अपने को नष्ट करने जा रहा है।
आम-- महुआ काका, तुम भी आ गये। क्यों न आते, अपना एक भाई सदा के लिए अपने बीच से बिदा हो रहा है।
महुआ--आम भाई, तुम्हारी यह दशा देख कर मेरी छाती फट रही है हमने सदा मनुष्यों का उपकार किया है।
सेब--महुआ दादा, शुरू में वह हमारी गोद में ही पला।हमने उसे फलों का भोजन दिया।अपनी छाल तथा पत्तों से उसका तन ढंका।
लीची--और सेब भाई, हमारे यहां बीजों को जमीन पे पड़े पड़े अपने आप जमते देख ही उसे खेती करने का उपाय सूझा।
शीशम--(भरे गले से) तुम ठीक कहती हो लीची रानी।फिर भी वह हमें काटने पर तुला हुआ है।पहाड़ों, घाटियों और सुन्दर सुन्दर झरनों से हमारी गोद भरी हुई है।
(पीपल का प्रवेश)
आम--लो, पीपल दादा भी आ गये।
पीपल--तुम्हारा यह हाल सुन कर भागा चला आ रहा हूं।अब हम मनुष्य को अनीति की राह पर नहीं चलने देंगे।मेरी भुजाएं उसे दंड देने के लिए फड़क रही हैं।एक ओरमुझे वह देवता कहता है,दूसरी ओर सड़कों पर वहमेरी डालियां काटता जा रहा है।भला ढूंठ पेड़ों से किसे छाया मिलेगी ? कैसा मजाक है यह ?
(सहसा जानवरों का शोर सुनायी पड़ता है)
पीपल--(चैंक कर) यह क्या।शेर, हिरन, हाथी सब इधर ही भागे चले आ रहे हैं।
(शेर, हिरन और हाथी का प्रवेश)
शेर--(क्रोध से गरज कर)जंगल कटते जा रहे हैं, अब पानी नहीं बरसता।कभी न सूखने वाले झरने, स्रोतों और तालाबों में आज पानी एक बूॅद नहीं है।हम सब प्यासे हैं।
हाथी--(चिघाड़ कर) घने जंगल ही हमारे घर हैं।पीपल दादा, आदमी ने उन्हें उजाड़ना शुरू कर दिया है।अब हम कहां रहें, कहां जायें ?
हिरन--शिकारी अपने स्वार्थ के लिए हम सबको मार रहे हैं।
पीपल--तुम सब ठीक कहते हो।धरती पर तड़पते हुए अपने आम भैया को देखो।तुम इनकी ठंडी छाया में जरूर बैठे होगे।
शेर--(गरज कर) अब हम मनुष्य के अत्याचारों को समाप्त करके ही रहेंगे।
हाथी--मैं उन्हें अपनी सूड़ में लपेट कर पैरों के नीचे रौंद डालूंगा।
आम--(कराह कर) मेरी एक बात मानो।
पीपल--कहो भाई, हम तुम्हारी एक नहीं सौ बातें मानेंगे।
आम--तुम लोग वन देवता के पास जाओ।वे अवश्य ही तुम्हारी सहायता करेंगे।
सब--बिल्कुल ठीक।चलो भाई, हम सब वन देवता के पास चलें।
(सबका प्रस्थान।परदा गिरता है)
(दूसरा दृश्य)
(जंगल में वृक्ष और पशु वन देवता से बातें करते दिखाई देते हैं।)
पीपल--वन देवता, हम सब अकारण सताए जा रहे हैं।मनुष्य के पालतू पशुओं को चारा,उनके उद्योगों में काम आने वाली लकड़ी, रसभरे फल, जड़ी बूटियां क्या नहीं देते हम उन्हें।लेकिन वह ----।
वन देवता--(क्रोध से)जब तक तुम मनुष्य से डरते रहोगे, वह तुम्हें कुचलता जायेगा।वह स्वार्थ में अंधा हो गया है। उसे अपना काला भविष्य भी नहीं दिखाई पड़ता।
पीपल--काला भविष्य ? हम समझे नहीं वन देवता।
वन देवता--तो सुनो।शायद तुम लोगों में से कोई भी इसे नहीं जानता।
हाथी--वह क्या वनदेवता ?
वन देवता--प्रकृति ने प्राणियों के जीवन की रक्षा के लिए इस पृथ्वी के चारों ओर एक पर्त बना रखी है।इसे हम ओजोन की पर्त कहते हैं।
पीपल--(आश्चर्य से) अच्छा !
वन देवता--वायुमंडल में अनेक तरह की जहरीली गैसें हैं, जिन्हें यह पर्त पृथ्वी तक आने से रोकती है।इसमें सबसे भयंकर हैं सूर्य से निकलने वाली घातक गामा किरणें।यह ओजोन की पर्त उसे रोक कर प्राणियों का जीवन बचाती है।
हाथी--लेकिन वनों के कटने से ओजोन की पर्त का क्या सम्बन्ध है, वन देवता ?
वन देवता--पहले इन किरणों के बारे में सुनो। इनसे तरह तरह की बिमारियां फैल सकती है।मानव शरीर के लिए तो ये बहुत ही घातक है। इनसे कैंसर तक हो सकता है।
पीपल--हे ईश्वर !
वन देवता--हां। और हाथी भाई तुम अब अपने सवाल का जबाव सुनो। मनुष्यों की आबादी बढ़ने से पर्यावरण प्रदूषित होता जा रहा है।ये वन उसे शुद्ध करने का कार्य करते हैं।
हाथी--अच्छा !
वन देवता--वनों के कटने से पर्यावरण प्रदूषित हो रहा है।इससे ओजोन की पर्त कमजोर
पड़ती जा रही है।एक दिन वह एकदम से नष्ट हो सकती है।तब क्या जीवित रह पायेगा मनुष्य ?
पीपल--वन देवता, तब हमें रास्ता बताइये। अब हम क्या करें ?
वन देवता--रास्ता ? तुम इन वनों में मनुष्यों के आने के सारे रास्ते ही बन्द कर दो।
(वन देवी का प्रवेश)
वन देवता--कौन, वन देवी ! पधारिये।
(सभी उसे प्रणाम करते हैं)
वन देवी--वन देवता को मेरा प्रणाम स्वीकार हो।
वन देवता--(हॅस कर) प्रसन्न रहो देवी।यह अचानक कैसे कष्ट किया है ?
वन देवी--(हॅस कर) जब वन देवता इतने क्रोधित हों, मेरे लिए अपनी शैय्या पर पड़े रहना कैसे संभव होता ?
वन देवता--मनुष्य जाति हम सबको नष्ट करने पर तुली हुई है। इन्हें ईंट का जबाव पत्थर से देने की सीख दे रहा हूं।
वन देवी--क्षमा करें देव, यह तो हमारे वनों का स्वभाव नहीं है।वनों का मनुष्यों के बड़ा पुराना नाता है।वह हमारी गोद में पला है।अब भी वह हमें प्यार करता है।
वन देवता--क्या उसके प्यार का यही रूप है देवी ?
वन देवी--नहीं। वह अंधेरे में है। मैं उसे उजाले की ओर ले चलूंगी।
वन देवता--(ऊंचे स्वर में) क्या आप सब लोग वन देवी की बात से सहमत हैं ?
पीपल--वन देवी चाहेंगी तो मनुष्य अवश्य ही सॅंभल जायेगा।
सब--हम सब को वन देवी और पीपल दादा की बातें स्वीकार हैं।
(कोलाहल करते हुए सब का प्रस्थान। परदा गिरता है)
(तीसरा दृश्य)
(धूप से तपते हुए रास्ते में बीमार सुरेश उसका पिता ज्वाला और नौकर भैरव दिखायी पड़ते हैं।)
सुरेश--(कराहते हुए) बहुत तेज धूप है, पिताजी।
ज्वाला--बेटा, मैं क्या करूं ? दूर दूर तक एक भी पेड़ नहीं दिखायी पड़ रहा है।भैरव, अभी हम लोग शहर से कितनी दूर आये हैं ?
भैरव--मुश्किल से दो किलोमीटर ही आये होंगे, ठाकुर साहब! सुरेश बाबू ठीक हो गये हैं मगर अभी कमजोर बहुत हैं।मैंने आपको इसी से धूप में चलने से रोका था।पहले तो यहां सड़क के दोनों ओर छायादार पेड़ थे।अब एक झाड़ी तक नहीं है।
सुरेश--पिता जी, प्यास ..गर्मी ...उफ, सारा शरीर जैसे झुलसा जा रहा है।
ज्वाला--क्या करूं बेटा, अब अपनी बेवकूफी पर पछता रहा हूं।केवल इस ख्याल से कि तेरी मां का दिल तुझे देखने के लिए छटपटा रहा है, मैं इस धूप में भी चल पड़ा।ओह ऐसी गरमी है कि जैसे आग का तूफान आया हो।क्या इस इलाके में पेड़ ही नहीं रह गये ?
भैरव--यह इलाका आपका ही है ठाकुर साहब ! पिछले साल आपने जंगल काटने का ठेका
दे दिया था। ठेकेदार हरे भरे पेड़ काटकर शहर ले गये।
सुरेश--(कष्ट से) पिता जी, मेरी जान बचाइये।इस गरमी में झुलस कर मैं तो मर जाऊंगा।आह, कहीं भी एक घूंट ठंडा पानी नहीं है।
ज्वाला--बेटा, कुछ समझ में नहीं आ रहा है कि मैं क्या करू ? ओह, आज उस साधू की
याद आ रही है।जंगल की कटाई के समय उसने कहा थाहरे पेड़ बेटे की तरह होते हैं।फिर भी मैंने उसकी बात नहीं मानी।अब उसका फल भोगना पड़ रहा है।
भैरव--मालिक, पेड़ों को देवता कहा जाता था।आज भी वे देवता ही हैं।उन्हें आपने नाराज किया है।अब उनकी प्रसन्नता ही सुरेश बाबू की रक्षा कर सकती है।
ज्वाला--तू सच कहता है भैरव।हे वनदेवता ! हे वनदेवी! मैं प्रण करता हूं कि मैंने जितने पेड़ कटवाये हैं, उसके दूने पेड़ लगवाऊंगा।मेरे बेटे की रक्षा करो।
(हाथ में पात्र लिए वन देवी का प्रवेश)
ज्वाला--(चौंक कर)देवी, आप कौन हैं ?
वन देवी--मैं वन देवी हूं।तुम्हारे पुत्र के लिए जल लेकर आयी हूं।
(सुरेश को जल पिलाती है)
ज्वाला--(प्रसन्नता से)वन देवी, आज मेरे पुत्र के लिए जल लेकर आयी हैं।कितना बड़ा भाग्य है, मेरा।
वन देवी--ठाकुर साहब,छाया के अभाव में आपके पुत्र को जो कष्ट उठाना पड़ा है, उसे आप स्वयं देख रहे हैं।
ज्वाला--देवी मैं क्षमा चाहता हूं।
वन देवी--तुमने वनों को काट कर धरती की गोद सूनी कर दी।छाया के अभाव में तुमने अपने बेटे की हालत देख ली।सूखा पड़ेगा, अकाल आयेगा।बाढ़ आयेगी।तो कभी बाढ़ में गांव नगर सब कट कट कर बह जायेंगे।क्या तुम देख सकोगे यह महाविनाश ?
ज्वाला--....बस .. बस ..अब रहने दो देवी।हम अपने पुत्र की तरह वनों की रक्षा करेंगे।
वन देवी--ये वन हमेशा तुम्हें एक भाई की तरह पुकारते रहे हैं।क्या अब तुम्हें वन की यह पुकार नहीं सुनायी पड़ती ?
ज्वाला--देवी, अब मेरी आंखें खुल गई।जल्दी ही आप फिर इस धरती की गोद में वनों को झूमता हुआ देखेंगी।मैं सब लोगों से कहूंगा कि वे अपनी खाली जगहों में वृक्षारोपण कर उसे हरे भरे पेड़ों से भर दें।
वन देवी--फिर समझ लो, मनुष्य के पास कुबेर का खजाना उठा हुआ चला आयेगा।दुनिया की कोई शक्ति तुम्हारी ओर आख तक न उठा सकेगी।
ज्वाला--आपके आशीर्वाद से ऐसा ही हो देवी।
(सब वन देवी को प्रणाम करते हैं।परदा गिरता है।)
( समाप्त)
लेखक--प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव
11मार्च,1929 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म।शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी नौकरी।पिछले छः दशकों से साहित्य सृजन मे संलग्न।देश की प्रमुख स्थापित पत्र पत्रिकाओं सरस्वती,कल्पना,प्रसाद,ज्ञानोदय,साप्ताहिक हिन्दुस्तान,धर्मयुग,कहानी,नई कहानी,विशाल भारत, आदि  में कहानियों,नाटकों,लेखों,तथा रेडियो नाटकों,रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन।आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।बाल कहानियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।वतन है हिन्दोस्तां हमारा(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का ताराआदि बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह सफ़र आज 85वर्ष की उम्र में भी जारी है।अभी हाल में ही नेशनल बुक ट्रस्ट,इंडिया से बाल उपन्यास मौत के चंगुल में प्रकाशित।

4 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा आज बुधवार (02-04-2014) को ""स्थायी मूर्ख" चर्चा मंच 1570 में "अद्यतन लिंक" पर भी है!
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    सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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    चैत्र नवरात्रों कीशुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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  2. बहुत अच्छा बाल नाटक...पर्यावरण के संरक्षण का सुन्दर संदेश|

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  3. पर्यावरण के संरक्षण का सन्देश देती बहुत सुन्दर प्रस्तुति...

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