शनिवार, 12 जुलाई 2014

यज्ञ की रक्षा(राम चरित मानस पर आधारित एकांकी नाटक)

मेरे पिता जी श्री प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव के 1974 में प्रकाशित राम चरित मानस पर आधारित चार एकांकी नाटकों के संकलन “मानस के चार फ़ूल” का पहला एकांकी नाटक।
                                                                   

यज्ञ की रक्षा
पात्र
विश्वामित्र - एक मुनि
शंखधर - एक दूसरा मुनि
दशरथ  - अयोध्या के राजा
राम      - दशरथ के पुत्र
लक्ष्मण  - दशरथ के पुत्र
मारीच   - राक्षस
सुबाहु   -  राक्षस
ताड़का  - एक राक्षसी
अन्य    - एक सेवक
          राक्षसों द्वारा वनवासी मुनियों के सताये जाने पर मुनि विश्वामित्र अयोध्या के राजा दशरथ के दरबार में पहुचे। उन्होंने राक्षसों का संहार करने के लिए दशरथ से उनके पुत्र राम और लक्ष्मण को मांगा। दशरथ पुत्रमोह के कारण पहले तो हिचके किन्तु बाद में विश्वामित्र द्वारा समझाये जाने पर स्वीकृति दे दी। राम और लक्ष्मण उस समय छोटी अवस्था के थे फिर भी गुरूजनों की रक्षा के लिए उनमें अपार बल आ गया। उन्होंने महाबली राक्षसों को मार कर आश्रमवासी गुरूजनों और मुनियों की रक्षा की।
                               पहला दृश्य
           (स्थान- मुनि विश्वामित्र का आश्रम। फूलों की उजड़ी हुई लताएं दिखायी पड़ती हैं। कुटी का फ़ूस भी जगह-जगह से नोचा हुआ है। मिट्टी के एक लिपे-पुते ऊॅंचे आसन पर विश्वामित्र आखें बन्द किये पूजा कर रहे हैं।अचानक मारो,पकड़ो,काटो-काटो का भयानक शोर सुनाई पड़ता है। भय से थर-थर कांपते हुए शंखधर का प्रवेश।)
शंखधर-गुरूदेव .... गुरूदेव.... जल्दी उठिये गुरूदेव! राक्षसों का दल इधर ही आ रहा है।
विश्वामित्र- (आंखें खोल कर आकाश की ओर देखते हुए) हे ईश्वर, क्या अब हम शान्ति के साथ एक घड़ी बैठ कर तुम्हारा नाम भी नहीं ले सकते ?(खड़े होकर आसन से नीचे उतर आते हैं। मुख पर गहरी चिन्ता दिखायी पड़ती है।) कुछ समझ में नहीं आता कि क्या किया जाय!
शंखधर- वन में जैसे ही कोई मुनि यज्ञ करने बैठता है ये राक्षस उसमें बाधा डालने के लिए दौड़ पड़ते हैं।
विश्वामित्र-लगता है, हमें अपने आश्रम खाली करने पड़ेंगे। देखो, उन दुष्टों ने ये लताएं किस तरह नोच  डाली हैं।        कुटी को कैसा उजाड़ दिया है।
शंखधर-लेकिन गुरूदेव आश्रम छोड़कर हम जायेंगे कहां?क्या कोलाहल भरे नगरों में चल कर यज्ञ और तपस्या करेंगे ?
विश्वामित्र- तुम ठीक कहते हो! हम आश्रम छोड़कर कहीं जा भी तो नहीं सकते।
शंखधर-इन राक्षसों के सरदार मारीच और सुबाहु ने तो बहुत ही उत्पात मचा रक्खा है। कल दो मुनियों को उठा ले गये और उन्हें मार कर खा गये।
विश्वामित्र-क्या ताड़का कम भयानक है। वह कल यहां आयी और आश्रम के एक बालक को मार कर खा गई।
शंखधर- हां देखिये, यहां धरती पर उसका खून फैला हुआ है।
विश्वामित्र-(आखों में आसू भर कर) यह बालक मुझे बड़ा प्यारा था। यह बहुत छोटा था तभी से इस आश्रम में रहने लगा था।
शंखधर- क्या इन राक्षसों के वध का कोई उपाय नहीं है ?
विश्वामित्र- क्यों नहीं है !
शंखधर- किसके हाथ से इनका वध हो सकता है गुरूदेव ?
विश्वामित्र- अयोध्या नरेश दशरथ के पुत्र राम और लक्ष्मण के हाथ से इनका वध हो सकता है। ये दोनों भाई बड़े वीर और साहसी हैं।
शंखधर- लेकिन वो बहुत छोटे हैं।क्या इतने छोटे बालक ऐसे भयानक और बलवान राक्षसों को हरा सकते हैं ?
विश्वामित्र- अवश्य हरा सकते हैं। लेकिन ......(अचानक विश्वामित्र के मुख पर चिन्ता छा जाती है।)
शंखधर-आप चुप क्यों हो गये गुरूदेव ?
विश्वामित्र- राजा दशरथ अपने पुत्रों को बहुत प्यार करते हैं। बुढ़ापे में उनके चार पुत्र हुये हैं। पता नहीं इस काम के लिए वे राम लक्ष्मण को देंगे या नहीं।
शंखधर-देगे क्यों नहीं। जब आप इतने अच्दे काम के लिए कहेंगे तो वे कभी इन्कार नहीं करेंगे।
विश्वामित्र- आशा तो मुझे भी यही है।
शंखधर- तब आप अवश्य जाइये गुरूदेव नहीं तो राक्षस हम सब को मार कर खा जायेंगे।
(अचानक बहुत निकट राक्षसों का भयानक कोलाहल सुनाई पड़ता है।मारो काटो की आवाजें आती हैं।मारीच और सुबाहु का प्रवेश)
मारीच- कहां है विश्वामित्र ! आज हम उसे कच्चा चबा जायेंगे।
                           (शंखधर भय से थर-थर कांपता है।)
विश्वामित्र- क्यों मारीच, तुम्हें हम लोंगों के यज्ञ में बाधा डालने से क्या सुख मिलता है ? तुम बेचारे निर्दोष मुनियों की हत्या क्यों करते हो ? बोलो सुबाहु !
सुबाहु- हाः हाः हाः हाः ! हमें आदमियों का खून मीठा लगता है विश्वामित्र !तुम लोग जंगल के मीठे फल खाते हो इसलिये तुम लोगों का खून तो और भी मीठा होता है। हाः हाः हाः ....।
विश्वामित्र- सावधान सुबाहु, तुम्हारा यह अत्याचार अधिक समय तक नहीं चल पायेगा। तुमने हम लोगों को सताना बन्द नहीं किया तो तुम्हें इसका फल भुगतना पड़ेगा।
सुबाहु- हाः हाः हाः हाः ! सुनते हो मारीच, यह विश्वामित्र का बच्चा क्या बकता है। अरे ओ मुनि, कान खोल कर सुन ले, दुनिया में ऐसा कौन पैदा हुआ है जो हमारा बाल भी बांका कर सके।
मारीच- हम लोगों पर लंका नरेश महाबली रावण की कृपा है जिससे देवताओं के राजा इन्द्र तक कांपते हैं।रावण ने काल तक को अपने वश में कर लिया है। हाः हाः हाः ................।
विश्वामित्र- लेकिन भगवान उस रावण से भी अधिक बलवान हैं। दुष्टों तुम लोगों का संहार करने के लिए उनका जन्म हो चुका है।
मारीच- तुम्हारा भगवान जन्म लेता रहे, हमें उसकी परवाह नहीं है। इस समय तो हम भूखे हैं। हमें तुम्हारा खून चाहिये।
सुबाहु- अरे मारीच, इसका खून हम लोग कल पीयेंगे,चलो आज दूसरे मुनि को ही पकड़ कर ले चलें।
          (शंखधर भय से थर-थर कांपता है।)
विश्वामित्र-(शंखधर को पीछे करके) नहीं, मेरे रहते तुम इस पर हाथ नहीं उठा सकते।
         (अचानक पीछे से गरजती हुई भयानक वेश में राक्षसी ताड़का का प्रवेश।)
ताड़का- अरे, इस मुनि को तो मैं ले जाती हूं। चलो, हम तीनों इसे बांट कर खायेंगे।(ताड़का झपट कर शंखधर को विश्वामित्र के हाथ से छुड़ा लेती है और जिधर से आई थी उधर ही उसे खींचती हुई लेकर भाग जाती है। विश्वामित्र लाचार से खड़े देखते रहते हैं।)
विश्वामित्र- (दुःखी स्वर में) नहीं, अब मुझे कुछ करना ही चाहिये। मैं आज ही राजा दशरथ के पास चलता हूं                   (प्रस्थान। परदा गिरता है।)
              दूसरा दृश्य
       (स्थान-राजा दशरथ का महल। एक सजे हुए कमरे में राजा दशरथ बैठे हुए हैं। सेवक का प्रवेश। सेवक दशरथ को सिर झुका कर प्रणाम करता है।)
सेवक- महाराज की जय हो। महामुनि विश्वामित्र भोजन कर चुके।
दशरथ- अच्छा! उन्हें विश्राम के लिए ले जाओ। महल के सभी सेवकों को मेरा आदेश सुना दो कि वे सब तरह से महामुनि के आराम का ध्यान रखें।
सेवक-  लेकिन महराज जल्दी ही आश्रम लौट जाना चाहते हैं। इसलिए वे आपसे बिदा मांगने आये हुये हैं।
दशरथ- अच्छी बात है,उन्हें आदर के साथ ले आओ।
          (सेवक का प्रस्थान। थोड़ी देर बाद सेवक विश्वामित्र को लेकर वापस आता है। राजा दशरथ विश्वामित्र के सम्मान में खड़े हो जाते हैं और उनके चरणों में सिर झुका कर प्रणाम करते हैं। विश्वामित्र राजा दशरथ को आशीर्वाद देकर पास के दूसरे आसन पर बैठ जाते हैं।)
दशरथ- मुनिवर, मेरा अहोभाग्य है कि आज आपने इस कुटिया में प्रसाद ग्रहण किया।
विश्वामित्र-राजन तुम धन्य हो कि तुम्हारे यहां स्वयं भगवान के पुत्र के रूप में अवतार लिया है।
दशरथ- (दोनों हाथ जोड़कर) सब आप गुरूजनों की कृपा है। मैं तो निराश हो चला था कि अब मुझे इस जन्म में सन्तान का मुंह देखने को नहीं मिलेगा।
विश्वामित्र-जिस पर भगवान की कृपा होती है उसके लिए कुछ भी दुर्लभ नहीं है। इस पृथ्वी पर पाप बढ़ गया है।तुम्हारे पुत्र पापियों का विनाश करेंगे।
दशरथ- मेरे पुत्र दीन-दुखियों के काम आ सके तो अपना जीवन सफल समझूंगा। मुनिवर, अब आप अपने आगमन का कारण बतायें। मैं आपकी इच्छा जल्दी से जल्दी पूरी करना चाहता हूं
विश्वामित्र- राजन् आजकल राक्षस आश्रमवासी मुनियों को बहुत कष्ट दे रहे हैं। उनके कारण हम लोगों का जीवन हमेशा संकट में रहता है। वे रोज मुनियों का वध करते हैं और यज्ञ में बाधा पहुंचाते हैं।
दशरथ- मैं अभी सेना सजा कर चलता हूं मुनिवर! राक्षसों के समूह को मेरी सेना चुटकी बजाते समाप्त कर देगी।
विश्वामित्र- नहीं राजन्, उन राक्षसों को वर मिला हुआ है। वे केवल आपके पुत्र राम के हाथ से ही मारे जा सकते हैं। इसलिए मैं छोटे भाई लक्ष्मण सहित रघुनाथ जी को मांगने आया हूं।
दशरथ- (चिन्ता में भर कर) आप राम और लक्ष्मण को मांगने आये हैं ?
विश्वामित्र- (हॅस कर) राजन, तुम मोह में पड़ गये ? राम और लक्ष्मण को मेरे साथ भेज कर तुम इस संसार में धर्म और यश पाओगे।
दशरथ- (कष्ट से) मुनिवर, इस बुढ़ापे में आकर मुझे चार पुत्र हुये हैं। पुत्रों का एक पल का भी वियोग मुझे सहन नहीं होता। आप मुझसे मेरा सारा खजाना ले लीजिए, यहां तक कि मैं प्राण तक दे सकता हूं। लेकिन मुनिवर,आप इन पुत्रों को मत मांगिये।
विश्वामित्र- राजन्, मैं खजाना या आपके प्राण लेकर क्या करूंगा। उन राक्षसों से हमारी रक्षा तो केवल राम और लक्ष्मण ही कर सकते हैं।
दशरथ- मुनिवर, मेरी समझ में नहीं आ रहा है कि इतने कोमल शरीर वाले छोटे-छोटे बालक उतने बलवान राक्षसों को कैसे मार सकेंगे।
विश्वामित्र- राजन्, मैं आपसे पहले ही कह चुका हूं कि राम लक्ष्मण साधारण बालक नहीं है। वे साक्षात भगवान के अवतार हैं। उनके भीतर अपार शक्ति है।
दशरथ- (हिचक के साथ) लेकिन मुनिवर ....................!
विश्वामित्र-मैं आपको विश्वास दिलाता हूं राजन्, आपके पुत्रों का बाल बांका नहीं होगा। वे गुरूजनों की रक्षा के लिए चल रहे हैं इसलिए संसार में उनका नाम अमर हो जायगा।
दशरथ- (सेवक से) जाओ, राम और लक्ष्मण को ले आओ।
                              (सेवक का प्रस्थान)
 विश्वामित्र- (प्रसन्न होकर) राजन् तुम्हारा यश बढ़े।
दशरथ- आप गुरूजनों की आज्ञा मैं कैसे टाल सकता हूं
  (सेवक के साथ धनुष-बाण लिए राम और लक्ष्मण का प्रवेश। वे पहले विश्वामित्र के, फिर पिता के चरण छूते हैं। दोनों उन्हें आशीर्वाद देते हैं।
दशरथ-बेटा राम और लक्ष्मण,मुनिवर के आश्रम में राक्षसों ने बहुत उपद्रव मचा रखा है।जाओ,आश्रमवासियों की रक्षा करो।
        (राम और लक्ष्मण के हाथ अचानक अपने धनुष-बाण पर चले जाते हैं। फिर वे प्रसन्न मुख
         से एक दूसरे को देखते हैं।)
राम- (सिर झुका कर ) आपकी आज्ञा पूरी होगी पिता जी।
विश्वामित्र- अच्छा राजन्, मैं चलता हूं। शीघ्र ही दोनों भाई सकुशल लौट कर आयेंगे।         
          (दशरथ विश्वामित्र का चरण स्पर्श करते हैं। विश्वामित्र उन्हें आशीर्वाद देकर द्वार की ओर बढ़ते हैं। उनके पीछे-पीछे राम और लक्ष्मण का प्रस्थान। परदा गिरता है।)
                                           तीसरा दृश्य
(स्थान- विश्वामित्र का आश्रम। राम और लक्ष्मण धनुष-बाण लिए आश्रम की रक्षा करते दिखायी पड़ते हैं। विश्वामित्र तथा दूसरे मुनिगण यज्ञ करने में लगे हुए हैं।)
लक्ष्मण- भैया, पता नहीं क्यों यहां आकर मुझे बड़ी प्रसन्नता हो रही है। ऐसा आनन्द तो मुझे कभी अपने अयोध्या के राजमहलों में भी नहीं मिला।
राम-लक्ष्मण, गुरूजनों की सेवा में ऐसा ही आनन्द मिलता है। फिर मुनिवर ने हमें ऐसी विद्या भी तो दी है जिससे भूख प्यास नहीं सताती और शरीर का बल भी कई गुना बढ़ जाता है।
लक्ष्मण- (हॅसकर) भैया, जब भी हम लोग गुरूजनों की सेवा में लगे है हमें लाभ ही लाभ हुआ है।
राम-कल आते समय रास्ते में राक्षसी ताड़का को मारकर हमें कितना सुख मिला।
लक्ष्मण- हां, भैया ! सुनते हैं कि ताड़का ने यहां बड़ा उत्पात मचा रखा था।उसने आश्रम के सारे पशुओं को मार डाला। वह बेचारे मुनियों को पकड़ कर ले जाती थी और उनका खून पी जाती थी।
राम- अभी दो बड़े राक्षस मारीच और सुबाहु बचे हुए हैं। जब तक उनका वध नहीं हो जाता राक्षस यहां सबको कष्ट देते रहेंगें
लक्ष्मण- मेरी तो इच्छा हो रही है कि कब वे दिखाई पड़ें और मैं उन्हें अपने वाणों से छलनी कर दूं
(अचानक बाहर मारो काटो चिल्लाते राक्षसों का शोर सुनायी पड़ता है। दोनों भाई सावधान होकर धनुष पर बाण चढ़ा लेते हैं।)
राम- मुनिवर,आप निश्चिन्त होकर अपना यज्ञ करें।हम दोनों भाई एक भी राक्षस को आपके निकट नहीं हुंचने देंगे।
                                   (गरजते हुए मारीच का प्रवेश)
विश्वामित्र-देखो राम, यही मारीच है।
मारीच- (दांत किटकिटा कर) हां मैं ही मारीच हूं। ओह लगता है विश्वामित्र ने आज हम लोगों के लिए बड़ा बढि़या कलेवा मॅगा रखा है।
विश्वामित्र- मारीच, ये दोनों भाई तुम्हारा कलेवा नहीं काल हैं।
राम- (रोष से) सावधान, एक पग भी आगे बढ़ाया तो मेरा बाण तुम्हारा अन्त कर देगा।
मारीच- (जोर से हॅस कर) क्या कहने, छोटे मुंह बड़ी बात। अरे बच्चों अभी तो तुम्हारे दूध के दांत भी नहीं टूटे। जाओ अभी गुल्ली डंडा खेलो, बड़े होकर आना तब हमसे लड़ना।
लक्ष्मण- भैया, अब मुझसे नहीं रहा जाता। आज्ञा दीजिए,मैं इस दुष्ट का पल भर में अंत कर दूं
राम- नहीं लक्ष्मण, इससे मुझे निपटने दो। सावधान मारीच, तुम्हारा काल तुम्हारे सिर पर आ पहुंचा है।
मारीच- (अट्टहास करके) ओह, तो मुझे पहले तुम्हारा ही मजेदार खून चखना पड़ेगा। (गरजता हुआ आगे बढ़ता है। राम बाण मारते हैं। मारीच बाण की चोट खाये स्थान को दोनों हाथों से दबाकर पीड़ा से चीखता हुआ बाहर भागता है।)
राम- मुनिवर, आपकी कृपा से इस अत्याचारी राक्षस का आतंक भी समाप्त हुआ।
विश्वामित्र-अभी इसका साथी सुबाहु बचा हुआ है राम। वह भी आता ही होगा (अचानक भयानक रूप से गरजते हुए सुबाहु का प्रवेश।)
सुबाहु-(क्रोध से) कहां है मारीच को बाण मारने वाले बालक ? ओह, तुम लोग हो ? आज मैं अपना आहार तुम्हीं लोगों को बनाऊॅगा।
राम-(हॅस कर) लेकिन सुबाहु, मैंने उससे भी पहले तुम्हें काल के आहार के लिए चुन लिया है।
सुबाहु- काल ! हाः हाः हाः ! काल तो मेरी मुट्ठी में है लड़कों। मैं तुम दोनों को एक साथ चबाता हूं। हाः हाः हाः।   (जैसे ही वह आगे बढ़ता है राम उसे बाण मारते हैं। बाण लगते ही वह चिल्लाता हुआ बाहर की ओर भागता है। कुछ देर से उसकी भयानक पीड़ा भरी चीख सुनाई पड़ती है।)
राम- लीजिए मुनिवर, इस दुष्ट का भी अन्त हो गया।
विश्वामित्र-(प्रसन्नता से) राम, आज तुम दोनों भाइयों ने आश्रम वासी मुनियों का कष्ट दूर किया है। संसार में तुम्हारा यश फूल की तरह फैलेगा।
राम-गुरूजनों की सेवा तो हम बालकों का कर्तव्य ही है। मुनिवर आप लोगों की रक्षा करके हम दोनों भाइयों का जन्म सफल हुआ।
विश्वामित्र-मैं आशीर्वाद देता हूं राम, तुम दोनों भाइयों की यह गुरू भक्ति सदा इस संसार में दूसरे बालकों को प्रेरणा देती रहे। तुम्हारे चरणचिन्हों पर चलने वालों को तुम्हारा बल और बुद्धि मिले। तुम्हारी तरह उनका नाम भी अमर हो।
राम- (विश्वामित्र के चरण छूकर) आपके आशीर्वाद से हमारा जीवन धन्य हुआ मुनिवर।
विश्वामित्र- अब मैं चाहता हूं कि तुम लोग कुछ दिन इस आश्रम में रह कर घूमो फिरो। जब मन में आये अयोध्या वापस चले चलना।
लक्ष्मण- हम लोगों का सौभाग्य है मुनिवर जो आपने यहां रहकर हमें कुछ सीखने का अवसर दिया। भैया, हम लोग अपनी कुटिया में चलें।
          (दोनों भाइयों का प्रस्थान। विश्वामित्र उन्हें मुग्ध दृष्टि से देखते रहते हैं। परदा गिरता है। )
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प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव

                                                

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