रविवार, 17 अगस्त 2014

धूर्त भेडि़या

                     
आज से सैकड़ों साल पहले विन्ध्याचल की पहाडि़यों से घिरा हुआ एक अत्यन्त मनोरम जंगल था। उस जंगल में सभी पशु-पक्षी चैन से रहते थे। क्योंकि वहां का राजा सिंह और उसका मन्त्री बन्दर दोनों ही बहुत न्यायप्रिय और प्रजापालक थे। राजा सिंह सदैव प्रजा के कष्टों को दूर करने के लिए तत्पर रहता था। इसीलिए वहां की प्रजा को किसी प्रकार का दुःख नहीं था और सब सुख-चैन की वंशी बजाते थे।

      जंगल के एक छोर पर एक सुन्दर झरना था। उसका पानी बड़ा मीठा था। जंगल के सभी पशु-पक्षी वहीं पानी पीते थे। उसी झरने के पास एक धूर्त भेडि़या रहता था। वह जंगल में रहने वाले सभी पशु-पक्षियों को हमेशा परेशान किया करता था। जंगल में कोई उत्सव होता अथवा किसी भी प्रकार का अच्छा कार्य होता तो वह सदैव उसमें विघ्न उत्पन्न करता था। उससे सभी पशु-पक्षी परेशान थे। कई बार सिंहराज के दरबार में फरियाद भी की गई, परन्तु कोई असर नहीं हुआ। भेडि़या धूर्त होने के साथ ही बहुत चालाक भी था। वह अपराध करते हुए कभी भी रंगे हाथ नहीं पकड़ा गया। तब सिंहराज ने सभी पशु-पक्षियों को सान्त्वना दी कि समय आने पर इसे उचित दण्ड दिया जाएगा।
          कुछ दिनों बाद ही पूरे जंगल भर में सूखा पड़ गया। एक ओर गर्मी का महीना, ऊपर से वह सूखा। अब झरने का पानी भी धीरे-धीरे सूखने लगा था। कुछ दिनों बाद झरने का पानी एकदम सूख गया। जंगल के पशु-पक्षी प्यासे मरने लगे। पूरे जंगल में पानी के लिए त्राहि-त्राहि मची हुई थी। जंगल में सभी परेशान हो उठे थे।अन्त में सिंहराज ने एक दिन जंगलवासियों की एक सभा बुलाई। जंगल में डुग्गी पीट दी गई कि इस सभा में सभी का आना आवश्यक है।
          दूसरे दिन पूरा दरबार खचाखच भरा हुआ था, कहीं भी तिल रखने की जगह नहीं थी। सिंहराज के लिए एक ऊंचा सिंहासन बना था। उसके नीचे प्रधान मन्त्री बन्दर का स्थान था। उसके बाद अन्य मन्त्रियों तथा सभी प्रजाजनों का। सभी जानवर आ चुके थे और बड़ी उत्सुकता से सिंहराज तथा मन्त्री बन्दर के आने की प्रतीक्षा कर रहे थे। थोड़ी ही देर में सभाभवन के द्वार पर खड़े द्वारपाल कुत्ता प्रसाद ने ऐलान किया--‘‘महाराजधिराज ‘‘ सिंहराज पधार रहे हैं ..सभी लोग सावधानी से बैठ गये।
          जैसे ही सिंहराज पधारे सभी पशु-पक्षी उनके सम्मान में खड़े हो गये। सिंहराज बैठ गये तथा उन्होंने सभी को बैठने का संकेत किया। सिंहराज के चेहरे पर छायी हुई चिन्ता की रेखाएं साफ झलक रही थीं। बैठने के बाद सिंहराज ने एक बार उत्पन्न गम्भीर दृष्टि से पूरे दरबार में नजर दौड़ाई। इसके बाद सिंहराज ने एक गम्भीर गर्जना की जिससे सारा जंगल कांप उठा।
          सिंहराज ने कहना आरम्भ किया--‘‘इस जंगल के सभी प्रजागण तथा मन्त्रीगण ! आप जैसा देख रहे हैं कि इस समय चारों ओर अकाल का भीषण प्रकोप है तथा सारे जंगल के पशु-पक्षी उससे परेशान हैं। मुझे यह भी पता लगा है कि जिस झरने से हमस ब जल लेते थे वह भी सूख गया है। अब आप लोग भी अत्यन्त परेशान हैं। मैंने यह समस्या इस जंगल के प्रसिद्ध इंजीनियर नन्हें चीता के सामने रखी थी जो कि अभी पिछले दिनों ही अफ्रीका के जंगलों से इंजीनियरिंग का विशेष अध्ययन करके लौटे हैं। काफी सोच-विचार के बाद वे इस नतीजे पर पहुंचे हैं कि यदि जंगल के सभी लोग मिलकर सभा भवन के द्वार पर एक कुआं खोद लें तो उससे अच्छी जल की व्यवस्था और कोई नहीं होगी। क्योंकि सभा भवन जंगल के बीचों-बीच स्थित है। यहां से जल ले जाने में सभी को सुविधा रहेगी। यही बात कहने के लिए मैंने आज की यह सभा बुलाई है। मैं यह जानना चाहूंगा कि क्या आप लोग नन्हें चीता की इस योजना से सहमत हैं ? क्या आप लोग उन्हें इस कार्य में सहयोग देंगे ?”
          महाराज सिंह के चुप होते ही सारे जानवर बोल पड़े --‘‘हां, हम लोग इस योजना से सहमत हैं और हम लोग उन्हें पूरी-पूरी सहायता देंगे। सिंहराज ने यह सुनकर कहा, --‘‘आप लोग इस कार्य में सहयोग देंगे, यह जानकर मुझे बहुत प्रसन्नता हुई है। मेरा विचार है कि इस शुभ कार्य में देर नहीं करनी चाहिए। कल से ही यह कार्य आरम्भ कर दिया जाय। इन्हीं शब्दों के साथ मैं आज की यह सभा समाप्त करता हूं।यह कहकर सिंहराज सभा भवन से निकलकर मन्त्रियों के साथ चले गये। उनके जाने के बाद के बाद सभी पशु-पक्षी भी अपने-अपने घर चले गये।
          दूसरे दिन से इंजीनियर नन्हें चीता की देख-रेख में कुए की खुदाई शुरू हो गई। थोड़ी-थोड़ी देर पर खोदने वाले बदल दिए जाते थे। शाम तक सभी लोगों ने मिलकर करीब दस फुट गहरा गड्ढा खोद लिया। इसके बाद दूसरे दिन आने का निश्चय करके सब अपने-अपने निवास में चले गये।
          अगले दिन जब सब लोग वहां पहुंचे तो उनके आश्चर्य का ठिकाना न रहा, क्योंकि उन लोगों ने जितना गड्ढा खोदा था वह किसी ने पाट दिया था। किसी की समझ में यह बात नहीं आ रही थी कि यह काम किसने किया। खैर, उस दिन फिर मेहनत करके उन लोगों ने गड्ढा खोदा। परन्तु जब वे तीसरे दिन वहां आए तो फिर उस गड्ढे में मिट्टी भरी हुई थी। इसी तरह प्रतिदिन होने लगा।
          परेशान होकर सभी पशु-पक्षियों ने एक सभा की और उसमें निश्चय किया कि दो लोग मिलकर रात में गड्ढे के पास पहरा देंगें। सबसे पहले दिन खरगोश और हिरन को पहरा देना था। दोनों शाम होते ही अपने-अपने घरों से खाना खाकर सभा-भवन के पास पहुंच गये। दोनों वहीं टहलते हुए आपस में बात करने लगे। बात करते-करते जब काफी रात हो गयी तो दोनों वहीं सभा-भवन के द्वार पर बैठ गये। उनको बैठे हुए अभी थोड़ी ही देर हुई होगी कि उन्हें तरह-तरह की भयानक आवाजें सुनाई पड़ने लगीं। दोनों ने ही इधर-उधर देखा कहीं कुछ नहीं था।
          थोड़ी देर बाद फिर उसी तरह की आवाजें आने लगीं। इस बार जब दोनों ने सामने देखा तो चीख पड़े। उन्हें उस गड्ढे के पास एक सफेद काली छाया हिलती हुई दिखलाई पड़ी जो उन्हीं की तरफ बढ़ रही थी। दोनों भूत-भूत चिल्लाते हुए भाग निकले।

          दूसरे दिन सुबह जब सभी पशु-पक्षी गड्ढे के पास पहुंचे तो गड्ढा फिर पटा हुआ था। खरगोश और हिरन से पूछा गया तो रात की पूरी घटना उन्होंने बता दी। उस घटना को सुनकर किसी भी जानवर को उस पर विश्वास नहीं हो रहा था। तभी भेडि़या बोला, ‘‘अरे मैंने तो पहले ही मना किया था कि वहां पर कुआं मत खोदो। वहां पर तो भूतों का राजा रहता है। भेडि़ये की यह बात सुनकर सभी जानवर डर गये । तब गधे ने कहा, ‘‘अच्छा आज हम और घोड़ा भाई पहरा देंगे। देखते हैं कौन आता है। उस दिन घोड़ा तथा गधा पहरा देने गये। रात में इन लोगों के साथ भी वही घटना घटी। भूत को देखते ही दोनों डर का भाग गये।
          अगले दिन जंगल के सभी जानवर भयभीत होकर सिंहराज के पास पहुंचे और उन्होंने अपनी समस्या उनको बतायी। सिंहराज ने काफी सोच-विचार के यह मामला जंगल के गुप्तचर विभाग की चीफ चुलबुल लोमड़ी को सौंपा। चुलबुल लोमड़ी रात को अकेले ही कुएं के पास गई। रात में जब भूत निकला तो पहले वह डर गयी। फिर ध्यान से देखने पर उसने पहचान लिया। यह तो झरने के पास वाला धूर्त भेडि़या था। वह उस समय चुपचाप उठकर चली गयी।
          दूसरे दिन रात में वह जंगल के पुलिस कप्तान शेरू कुत्ते तथा पुलिस के चार जवानों को लेकर वहां पहुंची। रात में जैसे ही भूत के वेश में भेडि़या निकला चुलबुल लोमड़ी ने तुरन्त पुलिस कप्तान शेरू कुत्ते तथा उसके पुलिस के जवानों को इशारा किया। उन लोगों ने दौड़कर भेडि़ये को दबोच लिया और जंजीरों से बांध दिया।    
          रात किसी तरह व्यतीत हुई। सुबह चुलबुल लोमड़ी तथा पुलिस कप्तान शेरू उस भेडि़ए को लेकर सिंहराज के दरबार में पहुंचे और सिंहराज को बताया कि यी प्रतिदिन भूत बनकर लोगों को डराता था और यही गड्ढे में मिट्टी भर देता था। अब इसे जो चाहें सजा दें।
         सिंहराज ने उस भेडि़ए  की नाक-कान कटवाकर और उसके मुंह में कालिख लगवा कर पूरे जंगल में घुमाया और उसको सभी जानवरों ने मिलकर जंगल से बाहर खदेड़ दिया। इसके बाद सभा-भवन के द्वार पर एक बहुत ही सुन्दर कुआं बना और जंगल के सभी पशु-पक्षी सुख-पूर्वक रहने लगे।
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डा0हेमन्त कुमार

2 टिप्‍पणियां:

  1. बहुत सुन्दर प्रस्तुति।
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    आपकी इस प्रविष्टि् की चर्चा कल मंगलवार (19-08-2014) को "कृष्ण प्रतीक हैं...." (चर्चामंच - 1710) पर भी होगी।
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    श्रीकृष्ण जन्माष्टमी की
    हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
    सादर...!
    डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'

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