जाड़ा ताल
ठोंक जब बोला,
सूरज का
सिंहासन डोला,
कुहरे ने
जब पांव पसारा,
रास्ता
भूला चांद बिचारा।
छिपे सितारे ओढ़ रजाई,
आसमान नहिं दिखता भाई,
पेड़ और पौधे सिकुड़े सहमे,
झील में किसने बरफ़ जमाई।
पर्वत धरती सोये ऐसे,
किसी ने उनको भंग पिलाई,
सुबह हुयी सब जागें कैसे,
मुर्गे ने तब बांग लगाई।
जाड़ा ताल
ठोंक जब बोला,
सूरज का
सिंहासन डोल॥
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डा0हेमन्त कुमार
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल शनिवार (06-01-2018) को "*नया साल जबसे आया है।*" (चर्चा अंक-2840) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'