(हिन्दी
के प्रतिष्ठित बाल साहित्यकार हमारे पिताजी आदरणीय श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी
की आज पुण्य
तिथि है।आज 31 जुलाई 2016 को वो
हम सभी को अकेला छोड़ गए थे।आज
वो भौतिक रूप से हमारे बीच उपस्थित नहीं हैं लेकिन उनकी रचनात्मकता
तो हर समय हमारा मार्ग दर्शन करेगी।मैं
आज पिताजी द्वारा लिखी गयी बाल कहानी “हमारा
कालू”को फुलबगिया पर पुनः प्रकाशित कर रहा..और शीघ्र
ही उनके द्वारा लिखितअंतिम बाल उपन्यास को भी इस ब्लॉग पर सीरियलाइज
करूंगा।यही पिता जी के प्रति सच्ची श्रद्धांजलि होगी।)
(पिताश्री आदरणीय प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी )
हमारा कालू
पापा चिल्लाए जल्दी से बाहर आओ।पता नहीं कहां
से एक आवारा कुत्ता भटक कर आ गया है।हम सब वाइपर लेकर उसे भगाने दौड़े।देखा-- वह
पापा की ओर देख कर आंखे मटका रहा था।जैसे कहना चाह रहा हो।आवारा तो मत कहो यार।हां,घुमन्तू
जरूर कह सकते हो।इस घर से तो मेरा पुराना याराना है।मैं अब कुछ दिन यहां बिताने
आया हूं।मगर तुम सब तो छड़ी लेकर मेरा स्वागत करने आ गये।
पहले तो उसे डांटा-डपटा गया।उसका उस पर कोई असर नहीं हुआ।तब
पापा ने वाइपर उठाया।उसने आंखे मटकायी।पापा बोले “बड़ा ढीठ है।और पापा ने वाइपर लेकर उसे दौड़ाया।वह भागा जरूर
मगर पीछे मुड़ कर देखता भी जाता था।मटकती आंखें कह रहीं थीं--अब बस भी करो यार।मुझे
यह सब बिल्कुल पसंद नही है।
मगर पापा ने उसे भागा कर ही दम लिया।सब ने
संतोष की सांस ली।पर पापा हांफ़ रहे थे।
घंटे भर बाद दूध वाले ने आवाज दी।दरवाजा खोला
गया तो सब भौंचक्क रह गये।वह फ़िर आ गया था।इस बार आराम से लेटा दुम हिला रहा था।आंखें
मटका कर जैसे कह रहा हो----कैसी रही।
पापा फ़िर चिल्लाए—“यह कालू राम बिना
कुछ लिये जाने वाला नहीं है।दे दो इसे एकाध रोटी का टुकड़ा।”
“पापा आप इसे कालू क्यों कह रहें हैं?”हम सब ने पूछा।
पापा गुस्से से
बोले---“तब क्या सफ़ेद कहूं?ला कर पोत दो इसे चूना।”
बहरहाल आगे का किस्सा मजेदार रहा।वह
भगा दिया जाता घंटे भर बाद फ़िर लौट
आता।जाने और लौटने का क्रम जारी रहा।एक दिन ऐसा भी आया कि कालू राम जम ही गया
हमारे दरवाजे पर।उसे खाने के लिये कुछ ना कुछ दे ही देते।भारतीय संस्कृति में
मेहमान को भूखा रखने का रिवाज नहीं है जो।
फ़िर सबने सोचा कि जैसे आया है वैसे चला भी
जायेगा।मगर ऐसा हुआ नहीं।लाट साहब आराम से खाते रहे।आंखें मटक-मटका कर हम सब को चिढ़ाते
भी रहे।अब इस खेल में दोनों को मजा आ रहा था।
धीरे-धीरे हमने उसे कुछ खेल भी सिखाने शुरू कर
दिये।फ़ेंकी हुई गेंद को उठा कर ले आना।इसी तरह लकड़ी के खिलौने आदि भी।वह समझ गया,मुंह
में दबा कर ले आता।
हां,वह अपनी सीमा रेखा भी पहचान गया।
दरवाजे से बाहर।उसके लिये एक फ़टा पावदान बिछा
दिया गया।खाने के लिए अलमुनियम का प्लेट।वैसे ही पानी का बर्तन।अब क्या चाहिए
था।कभी–कभी पापा से छिपाकर दो-एक बिस्कुट भी।
इस बीच शहर से बाहर हमारे एक रिश्तेदार के
यहां शादी भी पड़ गई।सभी को जाना था।अब सवाल यह उठा----कालू का क्या किया जाए। साथ
ले नहीं जा सकते थे।इधर एक आवारा कुत्ते की जिम्मेदारी भी कौन पड़ोसी उठाता?
“कुछ नहीं।इसके लिए दो-चार दिन का खाना छोड़ देते हैं।”पापा ने कहा।
“भला इतने से कालू का पेट भरेगा?”हमने पूछा।
“तब क्या हम लोगों ने इसके खाने–पीने का ठेका ले रखा है?जैसे इधर–उधर से अब तक पेट भरता रहा,वैसे ही काम चला लेगा।”पापा बोले।
पापा–मम्मी के डर से हम लोग चुप लगा गए।जाने के दिन स्टेशन के
लिए एक टैक्सी मंगा ली गई।देर हो रही
थी।ट्रेन का टाइम भी हो गया था।हम लोग हड़बड़ी में टैक्सी में बैठ गए।
तभी कालू का
ध्यान टैक्सी से नीचे कुछ गिरने पर गया।रूमाल
में बंधी एक पोटली। कालू समझ गया।उसने पोटली को मुंह में दबाया फ़िर टैक्सी के पीछे
भागा।मगर टैक्सी कुछ ही पलों में उसकी आंखो से ओझल हो गई।कालू फ़िर भी उसी दिशा में
दौड़ता रहा।
ट्रेन प्लेटफ़ार्म नंबर दो पर आ रही थी।हम ओवर
ब्रिज से होकर वहां पहुंच गए।अचानक हम लोगों की नजर प्लेटफ़ार्म एक पर गई।
वहां कालू मुंह में पोटली दबाए इधर से उधर भाग
रहा था।जरूर हम लोगों की तलाश में।मम्मी ने पहचान लिया।उनकी जरूरी दवाएं थीं उसमें।
जाने की हड़बड़ी में वह दरवाजे पर टैक्सी से नीचे गिर गई होगी।मगर हममें से कोई नहीं
चाहता था कि कालू उसे अपनी मौत की कीमत पर यहां पहुंचाए।
तभी उसकी नज़र हम लोगों पर पड़ी।मौत सिर पर थी।हम
लोगों ने हाथ के इशारे से उसे उधर ही रहने के लिए कहा।इधर ना आने के लिए चिल्लाए
भी।मगर कालू कुछ समझ नहीं पाया।वह प्लेट फ़ार्म से नीचे कूद कर अपनी मौत के मुंह में कूद पड़ा।
ट्रेन से उसका कटना तय था।एक बार
तो लगा कि वह बच जाएगा।वह इंजन के आगे से इस पार निकल आया प्लेटफ़ार्म पर पैर जमाने
की कोशिश की।पर वे जम नहीं पाए।हमने उसके मुंह से पोटली तो ले ली।मगर उसे ऊपर नहीं
खींच सके।वहां ट्रेन का पड़ाव बहुत कम था।इस लिए हमें सीट पर जाने की जल्दी थी।मगर डिब्बे
में घुसते-घुसते यह जरूर देखा --कालू प्लेटफ़ार्म पर चढ नहीं पाया था।फ़िसल कर नीचे
जा गिरा।
वह थक चुका था।घबराया भी।हम लोग आगे की
कल्पना से ही सिहर उठे।जैसे तैसे हम अपने रिश्तेदार के यहां पहुंचे।वहां शादी का
माहौल था।पर हम उस जश्न को नहीं मना पाए।सबका मन बुझा-बुझा सा था।बार-बार उस आवारा
कुत्ते का चेहरा सामने आ खड़ा होता।जिसका नाम कालू था और जिसने हमारे लिए अपनी जान
दे दी।
चौथे दिन घर पहुंच रहे थे।यह सोच कर ही अजीब
लग रहा था कि कालू के बिना घर कैसा लगेगा।मगर चमत्कार हो गया।टैक्सी की आवाज सुनते
ही दरवाजे पर बैठा कालू हम लोगों की तरफ़ दौड़ पड़ा।मौत को धता बता कर घर पहुंच जाने
वाला कालू।खुशी के मारे सबके पैर सूंघ रहा था।
पापा को देख कर उसने आंखे मटकाईं----देखो
यार,अब मुझे परेशान ना करना।मुझे यह सब बिल्कुल पसंद नहीं है।
पापा की आंखों में आंसू आ गए।एक आवारा
कुत्ते की सूझ-बूझ और वफ़ादारी के जज्बे से उन्होंने उसे सलाम किया।हमारी आंखें भी
छल-छला आयीं।
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लेखक--प्रेमस्वरूप
श्रीवास्तव
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा आज गुरुवार (02-08-2018) को "गमे-पिन्हाँ में मैं हस्ती मिटा के बैठा हूँ" (चर्चा अंक-3051) पर भी है।
जवाब देंहटाएं--
चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ।
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'