कराटे वाला चाणक्य
विनय शरीर से दुबला पतला था।मगर उसे देख
कर कोई नही कह सकता था कि उस शरीर में एक बेहद मजबूत इन्सान भी है,इस इरादे ने ही
उसे भीतर से भी बेहद मजबूत बना दिया था,मन और बुद्धि का भी वह धनी था|
“सर”
कमरे मे प्रवेश कर विनय कोहली साहब से बोला।
“कहो,कौन हो तुम?क्या चाहते हो तुम?”कोहली ने पूछा।
प्रश्नों की इस बौछार
से जरा भी विचलित हुए बिना विनय बोला “सर,मैं कराटे सीखना चाहता हूँ|”
“क्या
कहा,कराटे?यह शरीर लेकर तुम कराटे सीखना चाहते हो?” कोहली मजाक के रूप में हँस कर बोले।
“हां सर। क्या मैं
कराटे नहीं सीख सकता?” विनय ने
पूछा।
“नहीं,पहले खा पी कर
अपने शरीर को मजबूत बनाओ तब आना। अभी तो एक बच्चा भी तुम्हें गिरा सकता है।” कह कर कोहली अखबार पढ़ने लगे।
“सर,मैं इतना कमजोर
भी नहीं हूं।” विनय बोला।
“कैसे मान लूं?”
यह सुनते ही विनय
ने अपने एक हाथ की मुट्ठी बांध ली। फ़िर
बोला—“सर मेरी इस मुट्ठी को
खोलिये।”
सुन कर कोहली मुस्कराये थे। मगर कुछ ही देर
बाद उनकी मुस्कुराहट गायब हो गई। विनय की मुट्ठी खोलने में उनके पसीने छूटने लगे।
तब कुछ ही क्षणों बाद विनय ने खुद ही अपनी मुट्ठी खोल ली।
कोहली के मुंह से केवल इतना ही
निकला—“वंडरफ़ुल।तुम कल से
ट्रेनिंग सेण्टर पर आ सकते हो बेटेआं,इस ढीली-ढाली धोती में नहीं। अच्छा हो कि तुम
पायजामा पहन कर आओ।”
विनय ने झुक कर उनके पैर छुये।फ़िर बाहर निकल
आया।कोहली चकित दृष्टि से जाते हुये विनय को देखते रहे।
विनय प्रतिदिन नियमित रूप से कोहली के यहां
आने लगा।कालेज में किसी को इसकी भनक तक न लगी। अब भी वह उनके लिये एक कार्टून
मात्र था।
हां कार्टून मात्र।क्योंकि जब वह
पहले दिन कालेज ज्वाइन करने आया तो उसका हुलिया कुछ ऐसा ही था।सर पर छोटे बालों के
बीच गांठ लगी एक लम्बी सी चुटिया,ढीला ढाला कुर्ता,पैरों में मोटर टायर की देशी
चप्पल।
सबसे पहले उसका सामना कालेज के एक
शरारती छत्र राजेन्द्र से हुआ। उसने इन शब्दों से उसका स्वागत किया—“कहिये मिस्टर चाणक्य,यहां नंद वंश का कौन है
जो इस लंबी चुटिया में गांठ लगाकर यहां आए हो?चलो गांठ खुली तो लहराती चुटिया और
भी अच्छी लगेगी।”
सुनते ही उसके पीछे खड़ी छात्र
छात्राओं की भीड़ ठठा कर हंस पड़ी। विनय ने कोई उत्तर नहीं दिया। केवल मुस्कुराकर रह
गयाआं,यह जरूर हुआ कि उस दिन से सभी शरारती छात्र छात्राओं को उसे मिस्टर चाणक्य
कहने में मजा आने लगा।
वैसे धीरे धीरे विनय ने अपने को वहां के
माहौल में ढ़ाल लिया।मगर सर पर गांठ लगी चुटिया का अस्तित्व बना रहा। इसी के साथ
उसका नया नाम चाणक्य भी।
विनय की क्लास में काफ़ी छात्र छात्राएं बड़े
घरों से थे।कैंटीन में उनका नाश्ता,मिठाई,समोसे,काफ़ी आदि से होता था। उनके कपड़े भी
माडर्न फ़ैशन और सुपर स्टाइल के।मामूली कपड़ों वाला विनय तो सिर्फ़ चाय ही पीकर उठ
जाता था। इसीलिये ऐसे लड़के लड़कियां उसके पास बैठने में तौहीन समझते थे। विशेष रूप
में वीणा और शीला को तो उससे बात तक करने में शर्म आती थी। मगर विनय इन सबसे दूर
पता नहीं किस दुनिया में खोया रहता था।
राजेन्द्र,नरेश,वीणा और शीला की दोस्ती पूरे
कालेज में मशहूर थी। राजेन्द्र और नरेश भी सम्पन्न घरों से थे। वे कैंटीन,कालेज
यहां तक कि बाहर भी अक्सर साथ देखे जाते थे।
उस दिन बोर्ड परीक्षा का फ़ार्म और फ़ीस
जमा हो रहे थेंआम पुकारे जाने पर विनय भी फ़ार्म फ़ीस लेकर पहुंचा।टीचर ने पैसे गिनने
के बाद विनय से पूछा,“यह
क्या,डेढ़ सौ रूपये कम क्यूं हैं?क्या तुमने नोटिस बोर्ड पर कल बढ़ी हुयी फ़ीस के
बारे में नहीं पढ़ा?”
“नहीं सर,मेरी मां की तबीयत ठीक नहीं है।मैं जल्दी चला गया था। इसी से नहीं
पढ़ पाया। सारी सर।” विनय बोला।
“देखो,मैं इतना कर सकता हूं कि फ़ार्म और ये पैसे तो अभी रख ले रहा हूं।कल
बाकी के पैसे जमा कर देना।वरना तुम्हारा फ़ार्म रुक जायेगा।”टीचर ने चेतावनी के स्वर में कहा।
वीणा शीला के कान में फ़ुसफ़ुसाई,“यार तेरे पर्स में तो पैसे हैं। दे दे तो आज
ही उसका फ़ार्म जमा जो जाएगा।”
शीला बोली—“क्यों दे दूं?दस बीस की बात रही होती तो दे भी देती,अब
डेढ़ सौ रूपये की उधारी ये चाणक्य महाशय चुकता भी कर पाएंगे?” वीणा चुप लगा गई।
विनय शाम को भारी मन से कालेज से बाहर निकला।कल
कहां से आएंगे डेढ़ सौ रूपये?घर में तो मां की दवा के लिये ही मुश्किल आन खड़ी होती है।कभी यह भी सोचता कि
क्यों कराटे सीखने में उसने इतने पैसे
बर्बाद कर दिये। इसी सोच में डूबा विनय यह भी भूल गया कि वह साइकिल पकड़े पैदल ही चल
रहा है।
तभी एक स्कूटी पर वीणा और शीला उसके बगल से
गुजरीं। दोनों इसी तरह एक ही स्कूटी पर कालेज आया जाया करती थीं। इस लिये विनय ने
उन पर कोई ध्यान नहीं दिया।
मगर तुरन्त ही वह चौंक पड़ा। एक बाइक पर
सवार तीन शोहदे अश्लील हरकतें करते हुए उनका पीछा कर रहे थे। किसी अनिष्ट की
संभावना से वह भी तुरंत साइकिल से उनका पीछा करने लगा।
उसने देखा,उन शोहदों से पीछा छुड़ाने के
लिये वे स्कूटी की रफ़्तार बढ़ाती जा रही थीं।मगर शोहदे भी बाइक की रफ़्तार उसी तरह
बढ़ा रहे थे। उस रफ़्तार में साइकिल से उनका पीछा करना मुश्किल था। फ़िर भी वह जी जान से उनके
पीछे लगा रहा।
इत्तफ़ाक से एक जगह जाम लगा हुआ था।इससे
उसकी रफ़्तार कुछ धीमी हो गई। यह देखते ही विनय ने साइकिल और तेज कर दी।वह सोच चुका
था कि अब उसे क्या करना है।करीब पहुंचते ही उसने साइकिल से बाइक पर एक जोरदार
टक्कर मारी।बाइक तुरंत लड़ख।दा कर गिर पड़ी।उसी के साथ शोहदे भी।
“सारी,भाई साहब। अचानक मेरी साइकिल के ब्रेक फ़ेल हो
गये।” विनय बोला। मगर तभी शोहदों ने विनय को
लड़कियों को हाथ से भाग जाने का इशारा करते देख लिया। वे उसकी चालाकी समझ गये।उन्होंने
अपने एक साथी को विनय से निपटने के लिये छोड़ उन लड़कियों को जा घेरा।
विनय के लिये अब काम आसान हो गया
था।उसने कराटे के दो एक वार में ही उसे ऐसा चित्त कर दिया कि वह फ़िर उठने लायक ही नहीं रहा।
उधर विनय जब उन लोगों के पास पहुंचा तो
देखा कि वहां भारी भीड़ इकट्ठी हो गयी थी। शोहदों ने वीणा और शीला के दुपट्टे फ़ाड़
कर फ़ेंक दिये थे।वे दोनों चीख रहीं थीं।मगर भीड़ मूक दर्शक बनी खड़ी थी।गुंडों के भय
से कोई आगे आने की हिम्मत नहीं कर रहा था। कहीं उनके पास असलहे हुए तो? तभी विनय
की नजर भीड़ में खड़े राजेन्द्र और नरेश पर पड़ी। इस समय वे भी भीड़ का हिस्सा बने हुए
थे। जैसे वीणा और शीला को पहचानते तक न हों।
विनय के लिये अब अपने को रोकना
मुश्किल हो गया। वह ललकारता हुआ उन शोहदों पर टूट पड़ा। एक मामूली से लड़के के इस
साहस से प्रभावित होकर भीड़ के लोग भी उन पर टूट पड़े। उनकी अच्छी खासी पिटाई करने
के बाद तीनों पुलिस को सौंप दिए गए।
विनय ने एक नजर वीणा
और शीला पर डाली उनकी आंखों में कृतज्ञता के आंसू झलक रहे थे।मगर फ़िर विनय वहां एक
मिनट के लिये भी नहीं रुका। क्योंकि उसे मां के लिये दवा भी तो ले आनी थी।
अगले दिन न चाहते हुए भी मां की दवा के
लिये रखे पैसों में से विनय ने डेढ़ सौ रूपए रख लिये। विनय के कालेज पहुंचने से
पहले ही उसके इस साहस की सूचना पूरे कालेज को लग चुकी थी।मगर सब से पहले वह फ़ीस के
बाकी पैसे लेकर क्लास में पहुंच गया।लेकिन वह चकित रह गया जब टीचर ने उसे बताया—“नहीं,इन्हें और कल दिये हुए पैसों को भी वापस रख लो।
तुम्हारी पूरी फ़ीस किसी और ने जमा कर दी है।”
“मगर
सर,किसने?”
“जमा करने
वाले ने नाम न बताने की शर्त पर ऐसा किया है।
विनय समझ गया।उसने शीला और वीणा की ओर
देखा।उनकी आंखें नीचे झुकी हुयी थीं।पहले तो उसने सारे पैसे उन्हें लौटा देने की
बात सोची। मगर फ़िर मां की बीमारी का खयाल कर फ़िलहाल उसने चुप रहना ही ठीक समझा।
प्रिंसिपल की नोटिस पर मध्यावकाश में दस मिनट
के लिये कालेज के सभी छात्र और टीचर हाल में पहुंचे। प्रिंसिपल बोले—“आप लोग यहां बुलाए जाने का उद्देश्य तो समझ ही रहे
होंगे।मैं चाहता हूं कि आप सब के सामने उस छात्र को उपस्थित करूं जिसने इस कालेज
का नाम रोशन किया है। आपने व्यंग से उसे चाणक्य नाम दिया है। इतिहास में एक ही
चाणक्य पैदा हुआ है। मगर विनय ने कल जिस साहस का परिचय दिया है वह किसी चाणक्य से
कम नहीं है। इतिहास का चाणक्य कूटनीति में पारंगत था। हमारा चाणक्य बेमिसाल साहस
का धनी है। उसका कराटे का ज्ञान कल खूब काम आया। आओ विनय,लोग तुम्हारे मुख से भी
दो शब्द सुनना चाह रहे हैं।”
प्रिंसिपल के पीछे खड़ा विनय सामने
आकर बोला—“ आदरणीय गुरुजन और साथियों,मुझे आप से केवल दो
बातें कहनी हैं। पहली यह कि अपनी माताओं,बहनों के साथ शोहदों द्वारा अश्लील हरकत
करते देख चुप न रहें। भीड़ के साथ आप भी मूक दर्शक न बनें। ऐसे शोहदों में कोई
नैतिक बल नहीं होता। आप उन्हें ललकारते
हुये आगे बढ़ें। विश्वास कीजिये,आपकी हिम्मत देख भीड़ भी उन्हें मजा चखाने आगे आ
जाएगी।
दूसरी बात यह कि आप किसी को सोच समझ कर
ही अपना दोस्त बनाएं। वह भरोसेमंद और संकट में काम आने वाला हो।”पूरे कालेज ने तालियों से विनय
के इन शब्दों का स्वागत किया।
बोर्ड की परीक्षा का परिणाम घोषित हुआ। विनय
पूरे कालेज में प्रथम स्थान पर था। उसकी इस सफ़लता पर बधाई देने वालों में सबसे
पहले उसके घर पहुंचने वाली वीणा और शीला थीं। उनके भीतर आया बदलाव बिना
कुछ बोले ही उनके चेहरे पर साफ़ झलक रहा था।
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प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव
आर एस-2/108,राज्य सम्पत्ति
आवासीय परिसर,सेक्टर-21,इंदिरानगर
लखनऊ—226016
मोबाइल
न0-07376627886
(इस कहानी के लेखक मेरे पिता जी श्री प्रेम स्वरूप
श्रीवास्तव जी हिन्दी साहित्य के लिये नये नहीं हैं।आप पिछले छः दशकों से साहित्य
सृजन में संलग्न हैं।आपने कहानियों,नाटकों,लेखों,रेडियो नाटकों,रूपकों के अलावा
प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य की रचना की है। आपकी कहनियों,नाटकों,लेखों की अब तक
पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित
लगभग तीन सौ वृत्त चित्रों का लेखन कार्य भी किया है।1950 के आस पास शुरू हुआ आपका
लेखन एवम सृजन का यह सफ़र आज 86 वर्ष की उम्र में भी जारी है।)
वाह ! बहुत सुन्दर ,हृदयस्पर्शी भावपूर्ण प्रस्तुति.शानदार
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