फूलों जैसे कपड़े
पहने,
जब सोकर उठ जाता सूरज।
बड़े सवेरे छत पर आकर,
हमको रोज जगाता सूरज।
जाड़े में धीमे
से छूकर,
सर्दी दूर भगाता
सूरज।
मगर दोपहर में, गरमी की,
हमको बहुत सताता सूरज।
शाम हुई तो गांव के पीछे,
पेड़ों पर टंग जाता सूरज।
रात हुए घर वापस आकर,
बिस्तर पर सो जाता
सूरज।
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गीतकार-डा0 अरविन्द दुबे
पेशे से चिकित्सक एवम शिशु रोग विशेषज्ञ डा0 अरविन्द दुबे बाल एवम विज्ञान साहित्य लेखन के क्षेत्र में एक चर्चित एवम
प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं।
आपकी इस प्रविष्टि् के लिंक की चर्चा कल सोमवार (11-07-2016) को "बच्चों का संसार निराला" (चर्चा अंक-2400) पर भी होगी।
जवाब देंहटाएं--
सूचना देने का उद्देश्य है कि यदि किसी रचनाकार की प्रविष्टि का लिंक किसी स्थान पर लगाया जाये तो उसकी सूचना देना व्यवस्थापक का नैतिक कर्तव्य होता है।
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चर्चा मंच पर पूरी पोस्ट नहीं दी जाती है बल्कि आपकी पोस्ट का लिंक या लिंक के साथ पोस्ट का महत्वपूर्ण अंश दिया जाता है।
जिससे कि पाठक उत्सुकता के साथ आपके ब्लॉग पर आपकी पूरी पोस्ट पढ़ने के लिए जाये।
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हार्दिक शुभकामनाओं के साथ
सादर...!
डॉ.रूपचन्द्र शास्त्री 'मयंक'
bahut sundar rachna
जवाब देंहटाएंsundr
जवाब देंहटाएंसुन्दर, बेहद सुन्दर !
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