मंगलवार, 6 दिसंबर 2016

शाबाश तन्मय

शाबाश तन्मय
                                                      लेखक-प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव
      
        तन्मय हर तरह से एक अच्छा लड़का था।पढ़ाई-लिखाई मे तेज।स्कूल से आते ही अपने  जूते-मोजे,स्कूल ड्रेस सब ठीक से रख देता।स्कूल का होम वर्क रोज़-रोज़ का रोज़ पूरा करता।फ़िर मम्मी-पापा के कामों में हाथ बटाता।
    यह सब ठीक था।पर मम्मी उसकी एक आदत को एकदम।नापसन्द करती थीं।अभी उस दिन एक घायल गिलहरी को उठा लाया।शायद दौड़ भाग मे पेड़ से गिर कर घायल हो गई थी।मम्मी के बिगड़ने पर बोला--आप परेशान मत हो। ऐसे ही छोड़ देता तो कुत्ता बिल्ली कोई भी इसे खा जाता।अभी डाक्टर अंकल से इसे दवा लगवा कर आता हूं।ठीक होते ही इसे फ़ुदकने के लिये छोड़ दूंगा।
                  इस तरह कभी चोटिल गौरेया को तो कभी घोंसले से गिरा कोयल का बच्चा।सबका इलाज करते थे डाक्टर अंकल।वे एक पशु चिकित्सालय मे डाक्टर थे।तन्मय के इस काम से उन्हें बड़ी खुशी मिलती थी।वो कहते-बेटा,जीव जन्तुओं के प्रति तुम्हारा यह प्रेम औरों के लिये भी आदर्श बनेगा।
       बेचारे पापा मम्मी का मान रखने के लिये उनकी हाँ में हां मिलाते रहते थे।वरना वे समझते थे,तन्मय एक बड़ा ही नेक काम कर रहा है।
        मगर कल तो गज़ब हो गया।तन्मय सड़क पर आवारा घूमते एक छोटे से पिल्ले को उठा लाया।देखते ही मम्मी गुस्से से आग बबूला होकर बोली-अब तेरी यह आदत तो हद पार कर रही है।देखो तो कितना गँदा पिल्ला उठा लाया।
       
मम्मी जी आप चिन्ता ना करें।मैं इसे अभी नहलाता हूं।इसे बाहर जाकर पोटी भी करना सिखा दूंगा और हां मम्मी,अब यह कुत्ते का पिल्ला नहीं,मूलन्द है।आपको कैसा लगा यह  नाम? तन्मय मुस्कुरा कर बोला।
       मूलचंद के नाना,इसका नाम मूलचन्द रक्खो या फूलचन्द।मगर इसे उठा लाने की क्याजरूरत थी।यह तो मुझे अन्धा भी दिखाई दे रहा है।मम्मी और भी गुस्सा होकर बोलीं।
जानता हूं मम्मी जी।इसीलिए तो इसे और भी उठा लाया। इधर से उधर भटक रहा था बेचारा।अगर मैं न ले आता तो जरूर किसी गाड़ी के नीचे आकर मर जाता।
      ठीक है। शाम को तेरे पापा आएँगे तो वो ही तेरी खबर लेंगे।यह कह कर मम्मी अपने काम मेँ लग गईं।
   पापा ने शाम को आफ़िस से आते ही शिकायत सुनी।उन्होंने भी गुस्से से आंखें लाल पीली कीं।एक आंख दबा कर तन्मय की ओर देखा।फ़िर छ्डी लेकर उसके पीछे दौड़े।अब आलम यह था कि आगे -–आगे तन्मय  पीछे मूल्चन्द  और उसके भी पीछे छड़ी लिए पापा आंगन मेँ दौड़ लगा रहे थे।मम्मी यह सब देख कर संतुष्ट।फ़िर बोलीँ---जाने दो मारना मत।पापा और तन्मय मम्मी के मुंह से यही तो सुनना चाहते थे।इस बार तन्मय ने पापा को एक आंख दबा कर देखा और मुस्कुरा दिया।
      अब तो घर में मूलचन्द के मजे ही मजे थे।तन्मय के हाथोँ स्नान,उसी के पास दौड़ कर खाना।बड़ा अच्छा लग रहा था उसे यहां आकर।
            एक दिन तन्मय को अचानक खयाल आया—मूलचंद कभी भूल से भी घर के बाहर निकल गया तो ना जाने क्या गुजरे।सबसे बढ़ कर आवारा कुत्तों को पकड़ने वाली गाड़ी ही उसे पकड़ कर ले जा सकती है।अच्छा हो कि उसके गले के लिये एक पट्टा खरीद लूं।पट्टे वाले कुत्तों को लोग जानते हैं कि यह पालतू है।एक छोटी सी चेन भी।मगर मम्मी पापा इसके लिये पैसे क्यों देंगे?फ़िर भी पास वाले किराना स्टोर वाले अंकल के यहां देख तो लिया ही जाय।
        वह किराना स्टोर पहुंच गया।पीछे पीछे मूलचंद।अंकल उसे पहचानते थे।देखते ही बोले—अरे तन्मय तुम यहां?साथ में यह पिल्ला भी?
      हां,अंकल,मूलचंद अंधा है।मगर सूंघकर और आहट से बहुत कुछ जान जाता है।मैं इसे घर ले आया नहीं तो किसी दिन किसी गाड़ी से दब कर मर ही जाता।
यह तो तुमने बड़ा शाबाशी का काम किया बेटे।क्या कुछ चाहिये?
    क्या इसके गले के नाप का पट्टा होगा?
    हां,क्यों नहीं होगा?
    और एक चेन भी।
   हां वह भी मिल जायेगी।क्या निकालूं?अंकल ने पूछा।
   नहीं अंकल। अभी चुकाने के लिये मेरे पास पैसे नहीं हैं।
   चलो,इसके बदले में देने के लिये तुम्हारे पास क्या कुछ है?
    अंकल,मेरे पास तो बस ये एक लाल रंग का कंचा है।यह मुझे बहुत प्रिय है।तन्मय कुछ निराशा से बोला।
जरा देखूं तो सही।तन्मय ने जेब से कंचा निकाल कर दिखाया।उसे देख कर अंकल बोले—नहीं तन्मय,मुझे तो हरा कंचा चाहिये था।तुम सामान ले जाओ।पैसे हो जायें तो दे जानां। नहीं तो हरे रंग का कंचा।
  धन्यवाद अंकल।कह कर तन्मय चलने को हुआ तो अंकल फ़िर बोले—अरे बेटे,इसके खाने वाले बिस्कुट और नहलाने वाला साबुन भी तो लेते जाओ।
बेल्ट में लगी चेन को पकड़ कर मूलचंद को घर ले जाते समय तन्मय बहुत खुश था।
      उसके जाते ही किराने वाले की पत्नी बोली-भला उसे मुफ़्त में इतना सामान क्यों दे दिया?गरीब बच्चों के साथ ऐसा करते हो तो कुछ समझ में आता है।ये तो पैसे वाले लोग हैं। हरा कंचा लेकर आयेगा तो बहाना बना दोगे कि नहीं,मुझे तो अब नीला कंचा चाहिये।क्यों?
       तुम नहीं समझोगी राधा।पर जरा इस बच्चे का इतना नेक काम तो समझो।मम्मी पापा इसे क्या पैसे देंगे?उलटे उस पर ही डांट पड़ेगी।पैसे चुरा कर ये सब ले आने का आरोप लगेगा।उसके लिये हम इतना भी नहीं कर सकते?देखना आज या कल में इसकी मम्मी मुझसे पूछने दौड़ी आएंगी।
        मम्मी पहले आक्टर अंकल के पास पहुंच गयीं।उनसे बोलीं—डाक्टर साहब,आप तन्मय के इन बेतुके कामों को क्यों बढ़ावा देते हैं?
     डाक्टर बोले—बहन जी,आपका तन्मय तो शाबाशी पाने का काम कर रहा है।उसे बेतुका मत कहिये।आज हम प्रकृति से कितना दूर होते जा रहे हैं।उसके बुरे नतीजे भी हम भोग रहे हैं।आप जरूर जानती होंगी ये पशु-पक्षी उसी प्रकृति के ही तो अंग हैं।तन्मय तो जाने अन्जाने उनकी सेवा कर हमें प्रकृति से जुड़ने की प्रेरणा दे रहा है।आपको तो प्रसन्न होना चाहिये।
   
इस अच्छी बात के आगे मम्मी क्या बोलतीं।चुपचाप लौट पड़ीं।यहां से वे किराना स्टोर पहुंच गयीं।उन्होंने उसके मालिक से पूछा----आपने तन्मय को इतना सामान पैसे लेकर ही दिया है न?
नहीं बहन जी।मालिक ने जवाब दिया।
तो आपने इतने रूपयों का सामान उसे यों  ही दे दिया?मम्मी ने अविश्वास से पूछा।
    जी हां,आपका बच्चा इतना नेक काम कर रहा है।मासूम पशु-पक्षियों की जान बचाना तो हमारे धर्म में भी लिखा हैअम जिस अंधे पिल्ले को ठोकर मारते उसकी जान बचाने के लिये वह उसे घर ले आया।हम तन्मय के लिये इतना भी नहीं कर सकते?और हां,उसे वह सामान एक हरे कंचे के बदले में दिया है।उससे कहियेगा कि इधर आए तो हरा कंचा लेता आए।मालिक मुस्कुराकर बोला।
           मम्मी के भीतर अभी तक डाक्टर के शब्द गूंज रहे थे।अब किराना वाले के ये शब्द।उनकी आंखें भर आईं।बेचारा तन्मय पढ़ाई में भी इतना तेज है।घर के भी इतने काम संभाले रहता है।उस पर से पशु-पक्षियों के लिये इतना लगाव,इतना सेवा भाव।
         अगले दिन तन्मय और उसके पापा आश्चर्य में पड़ गये।मम्मी मूलचंद के बिछाने और ओढ़ने के लिये गद्दियां सिल रही थीं।पापा ने मुस्कुरा कर तन्मय की पीठ ठोंकी---शाबाश तन्मय।
     मम्मी की शाबाशी तो उनके काम में ही बोल रही थी।तन्मय आज पहली बार भीतर से गदगद हो उठा।वह दौड़कर मम्मी से लिपट गया।
    मम्मी ने देखा—उनके सामने खड़ा मूलचंद भी दुम हिला रहा था।अंधा होते हुये भी जैसे उसे मम्मी के प्यार का एहसास हो रहा था।
                                   0000

प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
11मार्च,1929 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म।31जुलाई 2016 को लखनऊ में आकस्मिक निधन। शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी नौकरी।पिछले छः दशकों से साहित्य सृजन मे संलग्न।देश की प्रमुख स्थापित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों,नाटकों,लेखों,रेडियो नाटकों,रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन।आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।
बाल कहानियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।वतन है हिन्दोस्तां हमारा(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का ताराआदि बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह सफ़र 87 वर्ष की उम्र तक निर्बाध चला। 


रविवार, 6 नवंबर 2016

दस्तक

दस्तक दी जाड़े ने देखो
हर घर में अब  धीरे से
स्वेटर मफलर टोपे देखो
बक्से से झांके धीरे से।

रात में पंखा बंद कर देतीं
मम्मी जी अब धीरे से
कालू कूं कूं बोरी मांगे
पापा जी से धीरे से।

सभी रेंगने वाले प्राणी
शीत निद्रा में धीरे से
गौरैया के बच्चे सारे
बाहर झांकें धीरे से।

खिड़की के पीछे से सूरज
झांके अब तो धीरे से
पार्क में धूप के छौने फुदकें
हरी घास पर धीमे से।

दस्तक दी जाड़े ने देखो
हर घर में अब  धीरे से।
000

डा0हेमन्त कुमार

शनिवार, 9 जुलाई 2016

नटखट सूरज

फूलों   जैसे    कपड़े   पहने,
जब  सोकर  उठ जाता सूरज।
बड़े  सवेरे  छत  पर  आकर,
हमको   रोज  जगाता  सूरज।

जाड़े   में   धीमे   से  छूकर,
सर्दी   दूर   भगाता  सूरज।
मगर  दोपहर  मेंगरमी की,
हमको   बहुत  सताता  सूरज।

शाम  हुई  तो  गांव  के पीछे,
पेड़ों  पर  टंग  जाता  सूरज।
रात  हुए  घर  वापस  आकर,
बिस्तर  पर  सो  जाता सूरज।
000



गीतकार-डा0 अरविन्द दुबे
पेशे से चिकित्सक एवम शिशु रोग विशेषज्ञ डा0 अरविन्द दुबे बाल एवम विज्ञान साहित्य लेखन के क्षेत्र में एक चर्चित एवम प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं।


शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

संगीतकार कोयल

कोयल का गाना सुन बोले
इक दिन भालू दादा
ले लो तुम अब एक पियानो
दाम नहीं कुछ ज्यादा।

भाग के दोनों शहर को पहुंचे
 दूर नहीं था ज्यादा
देख समझ के पसंद किया फ़िर
एक पियानो बाजा।

पैसे लाई थी कम कोयल
दाम थे थोड़े ज्यादा
सिटी बैंक का कार्ड निकाले
फ़ौरन भालू दादा।

जंगल में फ़िर धूम मच गयी
कोयल लाई बाजा
झूम झूम कर कोयल गाती
संगत दें भालू दादा।
000
डा0हेमन्त कुमार


मंगलवार, 21 जून 2016

अनोखी सीख


                                 अनोखी सीख
                 
                    छोटी-छोटी पहाडि़यों और नदियों से घिरा हुआ एक बहुत घना जंगल था। उसी जंगल के बीचोंबीच एक गुफा में एक भालू रहता था। वह बहुत सीधा था। गुफा के सामने ही एक पेड़ पर एक बन्दर रहता था। बन्दर भी काफी सीधे स्वभाव का था, परन्तु भालू की तरह वह इतना अधिक सीधा नहीं था कि जंगल के जानवर उसे बेवकूफ बना सकें। चूंकि बन्दर और भालू दोनों ही करीब-करीब एक ही स्वभाव के थे, इसलिए दोनों में बहुत गहरी दोस्ती थी। भालू और बन्दर हमेशा साथ रहते थे। भूख लगने पर बन्दर पेड़ से फल तोड़कर भालू को देता था और भालू भी बन्दर को मधुमक्खी के छत्तों से मीठा शहद निकालकर खिलाता था। अपनी इस दोस्ती के कारण भालू और बन्दर पूरे जंगल में प्रसिद्ध थे।
            इसी जंगल में एक सियार रहता था। उसे बन्दर और भालू की यह दोस्ती फूटी आंख नहीं सुहाती थी। वह हमेशा मौके की तलाश में रहता था कि वह कब बन्दर और भालू में फूट डालकर उनमें आपस में लड़ाई करवाए।
            एक दिन बन्दर अमरूद के एक पेड़ पर बैठा अमरूद कुतर रहा था। अचानक उसने सोचा कि इस जंगल में फलों के इतने अधिक पेड़ हैं। जंगल के सारे बन्दर, भालू और पक्षी तो इन पेड़ों के फल खाते हैं, लेकिन दूसरे जानवरों को फल नहीं मिल पाते। अगर जंगल के बीच में भालू की गुफा में फलों की एक दूकान खोल ली जाय तो बहुत चलेगी। बस यह योजना दिमाग में आते ही वह दौड़ पड़ा भालू की गुफा की तरफ। जब बन्दर भालू की गुफा में पहुंचा तो भालू आराम कर रहा था। बन्दर ने भालू से कहा--‘‘भालू भाई, इस जंगल में इतने ढेर सारे फलों के पेड़ हैं, लेकिन उनके फल केवल हम लोग ही खा पाते हैं। जंगल के बाकी सारे जानवरों ने तो उनका स्वाद भी नहीं चखा है। ‘‘
            ‘‘हां, सो तो है ही। लेकिन ...। भालू उसकी बात को समझने की कोशिश करता हुआ बोला।
            ‘‘अगर किसी तरकीब से ये फल सारे जानवरों को मिल जाएं तो ? बन्दर ने आंखें नचाते हुए पूछा।
            ‘‘मिल जाएं तो इससे अच्छी बात क्या होगी ? लेकिन इससे हमको क्या मिलेगा ? तुम अपनी पूरी बात तो समझाओ ? भालू ने कहा।
            ‘‘अरे फायदा तो बहुत होगा कहकर बन्दर ने अपनी फलों की दूकान खोलने की सारी योजना विस्तार से भालू को बताई। भालू जब बन्दर की पूरी योजना सुन चुका तब उसने कहा--‘‘हां, बन्दर भाई, तुम्हारी योजना बहुत ही बढि़या है। इस दूकान से जंगल के दूसरे जानवरों को तो फायदा होगा ही, थोड़ा बहुत फायदा  हम लोगों को भी हो जाएगा। और हां, उसी दूकान पर मैं थोड़ा शहद भी रख लूंगा। आखिर जंगल के जानवरों को मीठे शहद का भी तो स्वाद चखना चाहिए। ‘‘
            ‘‘तो भालू भाई कब से यह दूकान खोली जाए ? बन्दर ने उत्सुकता से पूछा-‘‘अरे भाई, शुभ काम में देर किस बात की ? बस, आज गुफा के सामने जमीन की सफाई बगैरह कर दी जाए। कल चलकर खरगोश पेण्टर से दूकान के नाम का एक बड़ा-सा बोर्ड बनवा लिया जाय। परसों से हमारी दूकान चालू हो जाएगी। भालू ने उत्साह से जवाब दिया।
            इसके बाद बन्दर और भालू उत्साह के साथ सफाई अभियान में जुट गये। शाम तक दोनों ने मिलकर भालू की गुफा और उसके सामने के चबूतरे को एकदम साफ कर दिया। उस काम से फुरसत पाकर दोनों खरगोश पेण्टर के घर पहुंचे। बन्दर ने अपनी सारी योजना खरगोश को बताई और उससे एक अच्छा-सा बोर्ड तैयार करने को कहा। खरगोश उन दोनों की योजना सुनकर बहुत खुश हुआ और बोला--‘‘बन्दर भाई, तुम दोनों की योजना बहुत अच्छी है। मैं कल तक तुम्हारा बोर्ड तैयार कर दूंगा। पर यह तो बताओ कि उस बोर्ड पर लिखा क्या जाएगा ?
            ‘‘अरे खरगोश भाई, उसमें लिखना क्या है ? हम लोग कोई बहुत भारी दूकान तो खोलेंगे नहीं कि उसके लिए कोई लम्बा-चैड़ा बोर्ड बनेगा। एक छोटा-सा बोर्ड बना दो और उस पर साफ-साफ लिख दो--‘‘ताजे फल एवं शहद की दूकान बस ...। भालू ने सलाह दी।
            ‘‘ठीक है ! फिर मैं कल शाम तक बोर्ड तैयार कर दूंगा। खरगोश ने बन्दर और भालू से कहा। इसके बाद बन्दर और भालू अपनी गुफा की तरफ चले गये।
            अगले दिन सुबह से शाम तक में बन्दर और भालू ने मिलकर दूकान के लिए काफी फल एवं शहद इकट्ठा कर लिया। फल और शहद देने के लिए वहां कागज के लिफाफे और शीशियां तो थी नहीं, इसलिए बन्दर ढेर सारे बरगद के पत्ते तोड़ लाया। शाम को दोनों खरगोश के घर गये और वहां से दूकान का बोर्ड भी उठा लाए। दूकान का बोर्ड लाकर रात में ही दोनों ने उसे गुफा के सामने लगा दिया, ताकि अगले दिन सुबह उठकर उन्हें केवल फल और शहद गुफा के अन्दर से लाकर बाहर रखना पड़े।
            दूसरे दिन बन्दर और भालू बहुत सबेरे ही उठ गये और दोनों नाश्ता वगैरह करने के बाद दूकान पर फल और शहद सजाने में जुट गये। जल्दी-जल्दी उन्होंने गुफा के बाहर पेड़ के नीचे हर तरह के फल और शहद का घड़ा लाकर रख दिया। अब उधर से जाने वाला हर जानवर बोर्ड पढ़ता ओर उनके पास जाता तो कुछ-न-कुछ फल जरूर खरीदता। शाम होते-होते उनकी दूकान खुलने की खबर पूरे जंगल में फैल गई। जो भी जानवर उधर जाता वह उनके इस कार्य की प्रशंसा करता था।
            फलों की दूकान खुलने की सूचना सियार को भी मिली। वह भी उनकी दूकान देखने आया और शहद तथा फल ले गया। ऊपर से तो सियार ने उनकी दूकान की खूब तारीफ की, परन्तु मन-ही-मन वह जल उठा। वह वैसे ही बन्दर और भालू की दोस्ती से काफी ईष्र्या करता था तथा हमेशा उनका नुकसान करने के चक्कर में रहता था। जब उसने उनकी फलों की दूकान देखी तो उसकी ईष्र्या और बढ़ गयी। अ बवह उनके बीच फूट डालने के लिए किसी मौके की तलाश में रहने लगा।
            एक दिन सबेरे सियार घूमता हुआ उनकी दूकान के सामने से जा रहा था उसने देखा, भालू दूकान पर अकेला बैठा था। वह तुरन्त दूकान पर पहुंचा और बड़े प्रेम से उसने भालू को नमस्कार किया, ‘‘राम-राम, भालू भाई।
            ‘‘राम-राम, सियार भाई, ! आओ, बहुत दिनों बाद दिखे हो ?भालू ने आश्चर्य चकित होते हुए उसके अभिवादन का उत्तर दिया। वह सोच रहा था कि आज सियार इतने प्रेम से कैसे बोल रहा है ? जल्दी ही उसको इसका कारण भी समझ में आ गया जब सियार ने भालू के सामने बन्दर की शिकायत शुरू कर दी। सियार बोला, ‘‘भालू भाई, बस इधर से जा रहा था तो सोचा तुम्हारी दूकान भी देखता चलूं। अरे हां, बन्दर राम कहां हैं ?
            ‘‘बन्दर फल तोड़ने गया है। ‘‘ भालू ने उत्तर दिया।
            ‘‘अच्छा, अच्छा। सियार ने कहा। फिर इधर-उधर देखकर भालू से बोला, ‘‘भालू भाई, एक बात हैं, बन्दर के साथ दूकान खोलकर तुमने अच्छा नहीं किया। यहां तो तुम दूकान पर बैठकर नौकरों की तरह सामान बेचते हो और उधर बन्दर दिन भर फल तोड़ने के नाम पर घूमता-घामता रहता है। और तो और भालू भाई, जब तुम दूकान पर नहीं रहते हो तो बन्दर दूकान में से शहद चुरा कर खाता है।
            ‘‘तुम्हें ये सब बातें कैसे पता लगीं सियार भाई ?  भालू ने पूछा। ‘‘अरे भालू भाई, शहद चुराकर खाते हुए तो मैंने उसे अपनी आंखों से देखा है। मैंने तुम्हें बता दिया अब तुम जैसा उचित समझो करो। सियार ने कहा। भालू कुछ और पूछने जा रहा था कि सियार बोला--‘‘अच्छा भालू भाई ! अब मैं चलता हूं। लेकिन बन्दर को यह जानकारी न हो जाए कि मैंने यह सब बातें तुम्हें बतायी हैं। सियार इतना कहकर चला गया और भालू यह सोचता हुआ बैठा रहा कि कहीं बन्दर उसे वास्तव में बेवकूफ तो नहीं बना रहा है ?
            सियार भालू को बहकाने के बाद घूमता-घामता बगीचे में बन्दर के पास पहंुचा। वहां बन्दर फल तोड़ रहा था। बन्दर के पास जाकर सियार ने उसके सामने भालू की काफी शिकायत की और उसने वही बातें बन्दर से भी कही जो अभी-अभी भालू से कहकर आ रहा था। बन्दर को भी उसकी बातें सुनकर पहले तो भालू के ऊपर थोड़ा शक हुआ, लेकिन बन्दर भी कम समझदार नहीं था। उसे लगा कि कहीं ऐसा तो नहीं कि सियार भालू भाई के और मेरे बीच लड़ाई करवाना चाहता हो।
            शाम को जब बन्दर और भालू गुफा के सामने मिले तो दोनों ही एक-दूसरे को शक की नजरों से देख रहे थे। दोनों ही सोच रहे थे कि बात किस तरह से शुरू की जाए ताकि दूसरे को खराब न लगे। भालू उम्र में बन्दर से थोड़ा बड़ा था। अन्त में वही बन्दर से बोला, ‘‘ बन्दर भाईआज यहां सियार आया था।
            ‘‘क्या ? यहां सियार आया था? बन्दर आश्चर्य से बोला। उसे लगा कि उसका अन्दाज शायद सही है।

            ‘‘हां बन्दर भाई, सियार तुम्हारे बारे में कुछ बातें मुझे बता रहा था। भालू बोला।
            ‘‘उसने क्या-क्या बातें कही थी भालू भाई ? बन्दर जल्दी से बोला। तब भालू ने धीरे-धीरे उसे वे सारी बातें बतायी जो सियार ने बन्दर के विषय में उससे कही थी। भालू की बातें सुनकर बन्दर हो-हो करके हंसने लगा। हंसी रूकने पर बन्दर ने उससे कहा -- ‘‘भालू भाई, सियार तो मेरे पास भी गया था और उसने मुझसे भी यही बातें तुम्हारे बारे में बतायी हैं।
            ‘‘क्या ? सियार ने तुमसे भी यही बातें कही है। तब तो मुझे ऐसा लगता है कि हम दोनों में जरूर लड़ाई लगवाने के चक्कर में है। भालू भी आश्चर्यचकित होता हुआ बोला।
            ‘‘ठीक है, भालू भाई सियार को कोई अच्छा-सा सबक देना होगा। तभी उसका दिमाग ठिकाने लगेगा। बन्दर बोला।
            उसके बाद बन्दर और भालू काफी देर तक विचार करते रहे। अन्त में बन्दर के दिमाग में एक योजना आई और वह खुशी से उछल पड़ा। उसने तुरन्त धीरे-धीरे भालू को अपनी सारी योजना समझा दी। भालू भी उसकी योजना सुनकर खुश हो गया। दूसरे दिन ही बन्दर और भालू ने अपनी-अपनी दूकानें अलग कर लीं। बन्दर ने अपनी फल की दूकान अलग कर ली और भालू ने अपनी गुफा में शहद की दूकान लगा ली। यह देखकर जंगल वालों को बड़ा आश्चर्य हुआ। उसी दिन से बन्दर और भालू ने आपस में बोलना भी छोड़ दिया और सब जानवरों से एक-दूसरे की बुराई करने लगे। जब सियार को इस बात का पता चला तो वह बहुत खुश हुआ। वह तो यही चाहता था।
            एक दिन सुबह वह घूमता हुआ बन्दर की दूकान पर गया। बन्दर ने उसे देखते ही नमस्कार किया और उसे पास बैठाकर उससे बोला, ‘‘सियार भाई, तुम ठीक ही कहते थे। भालू जैसा बेईमान और धूर्त आदमी मुझे कहीं नहीं मिला। मैंने अब अपनी दूकान अलग कर ली है।
            ‘‘हां बन्दर भाई, यह काम तुमने बहुत अच्छा किया। अब तुम आराम से अपनी दूकान के मालिक रहोगे। अब यह दूकान तुम्हारी है। अगर मेरे लायक कोई सेवा हो तो बताओ। सियार मुस्कराता हुआ बोला।
            ‘‘ हां सियार भाई एक काम है। पर उसे तुम कर सकोगे ? बन्दर ने धीरे से कहा।
            ‘‘हां-हां क्यों नहीं ? बस तुम हुक्म करो। सियार उत्सुकता से बोला। बन्दर उसके थोड़ा और पास खिसक आया और धीरे-धीरे उससे बोला, ‘‘ सियार भाई मैं सोच रहा था कि कोई ऐसा इंतजाम करूं कि भालू को शहद बचने के लिए न मिल पाए। भालू रोज नदी के किनारे वाले बरगद के पेड़ में लगे सबसे बड़े वाले शहद के छत्ते से शहद निकालकर ले आता है। कल भी दोपहर में वह उसी पेड़ पर से शहद लेने जाएगा। उसके शहद निकालने से पहले ही अगर तुम वहां जाकर एक बांस से उस छत्ते को नीचे गिरा दो तो शहद को चींिटयां खा जाएगी और भालू को शहद नहीं मिल पाएगा। बन्दर की बात सुनकर सियार बहुत खुश हुआ। उसने कहा, ‘‘अरे बन्दर भाई, यह कौन सा बड़ा काम है ? मैं कल ही इसे कर दूंगा। बस, तुम चलकर मुझे वह छत्ता दिखला दो। इसके बाद बन्दर ने जाकर सियार को नदी के किनारे वाले बरगद के पेड़ पर लगा हुआ छत्ता दिखला दिया। फिर दोनों अपने घर वापस लौट गये।
            दूसरे दिन सुबह नाश्ता वगैरह करके सियार एक बड़ा-सा बांस लेकर खुशी से झूमता हुआ नदी के किनारे बरगद के पेड़ के पास पहुंच गया। वह आराम से पेड़ के नीचे खड़ा होकर बांस से छत्ते को हिलाने लगा। जैसे ही उसने छत्ते को थोड़ा -सा हिलाया, छत्ते में से सैकड़ों मधुमक्खियां निकलकर उसे काटने लगीं। जब मधुमक्खियों के तेज डंक उसके शरीर में घुसे तब सियार को अपनी गलती का अहसास हुआ। वह बांस छोड़कर बड़ी जोर से चीखता हुआ एक ओर भागा। इतने में एक पेड़ के पीछे से भालू और बन्दर हंसते हुए निकल आए। इतनी ही देर में मधुमक्खियों ने अपने डंग गड़ाकर सियार को अधमरा कर दिया था। वह तेजी से चिल्लाता हुआ अपनी मांद की तरफ भाग गया। बन्दर और भालू भी हंसते हुए अपनी गुफा में वापस चले गये।
            अगले दिन से बन्दर और भालू ने अपनी दुकानें फिर एक में मिला लीं और सियार उसके बाद फिर कभी उनकी दूकान की तरफ नहीं गया।
                             000

डा0हेमन्त कुमार