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बुधवार, 6 अप्रैल 2022

गुड़िया का टेंट

 बाल कविता

 गुड़िया  का टेंट



 

गुड़िया ने एक टेंट मंगाया

बड़े जतन से उसे लगाया l

बिछा के उसमें अपना बिस्तर

पढ़ने लगी कथा एक सुंदर l

 

तभी चूहे ने बेल बजाई

गुड़िया उठकर गेट पे आई l

चूहा बोला बिल्ली  बाहर

मुझको कर लो टेंट के अंदर l



 

गुड़िया बोली यहां से खिसको

तुम तो बस कुतरोगे इसको l

सुनो कथा यदि शांत बैठकर

आ सकते हो टेंट के अंदर ll

00000

कवि- 


कौशल
  पाण्डेय 

मोबाइल-09532455570

कानपुर के अंकिन गाँव में 3 अगस्त 1956 को पैदा हुए कौशल पाण्डेय हिंदी बाल साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं l1977 से हिंदी की स्तरीय पात्र पत्रिकाओं में लगातार रचनाओं का प्रकाशन lबच्चों बड़ों की अभी तक लगभग 10 किताबें प्रकाशित lदेश की कई संस्थाओं द्वारा प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित l 2016 में आकाशवाणी से सहायक निदेशक राजभाषा पद से अवकाश ग्रहण करने के बाद स्वतन्त्र लेखन l  

 

सोमवार, 11 सितंबर 2017

सर्कस से भागा जब भालू----।

सर्कस से भागा इक भालू
साथ में उसके बंदर कालू
भालू के था हाथ में सोटा
सीटी लिये था साथ में कालू।

चौराहे पर जाम दिखा तो
पहुंचे पुलिस बूथ पर दोनों
बंदर सीटी बजा रहा था
सोटा ले के जुट गया भालू।

सारे पुलिस बूथ से भागे
नया दरोगा सबसे आगे
बंदर भालू ने जल्दी से
जाम हटा के सड़क की चालू।
000

डा0हेमन्त कुमार

रविवार, 6 नवंबर 2016

दस्तक

दस्तक दी जाड़े ने देखो
हर घर में अब  धीरे से
स्वेटर मफलर टोपे देखो
बक्से से झांके धीरे से।

रात में पंखा बंद कर देतीं
मम्मी जी अब धीरे से
कालू कूं कूं बोरी मांगे
पापा जी से धीरे से।

सभी रेंगने वाले प्राणी
शीत निद्रा में धीरे से
गौरैया के बच्चे सारे
बाहर झांकें धीरे से।

खिड़की के पीछे से सूरज
झांके अब तो धीरे से
पार्क में धूप के छौने फुदकें
हरी घास पर धीमे से।

दस्तक दी जाड़े ने देखो
हर घर में अब  धीरे से।
000

डा0हेमन्त कुमार

शुक्रवार, 1 जुलाई 2016

संगीतकार कोयल

कोयल का गाना सुन बोले
इक दिन भालू दादा
ले लो तुम अब एक पियानो
दाम नहीं कुछ ज्यादा।

भाग के दोनों शहर को पहुंचे
 दूर नहीं था ज्यादा
देख समझ के पसंद किया फ़िर
एक पियानो बाजा।

पैसे लाई थी कम कोयल
दाम थे थोड़े ज्यादा
सिटी बैंक का कार्ड निकाले
फ़ौरन भालू दादा।

जंगल में फ़िर धूम मच गयी
कोयल लाई बाजा
झूम झूम कर कोयल गाती
संगत दें भालू दादा।
000
डा0हेमन्त कुमार


मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

नदी

सिर  से  उतर  पहाड़  के  बहती  जाए नदिया।
बिना   रुके   मैदानों   में  चलती  जाए नदिया।

गीत    सुनाते   हंसते-गाते,
उसको  आगे  तक  जाना है
रास्ते  में  जो भी मिल जाए
सबकी   प्यास   बुझाना  है

कल-कल करती कभी न थकती, बहती जाए नदिया।
बिना   रुके   मैदानों  में  चलती  जाए  नदिया।

थोड़ी  देर अगर  तुम ठहरो
मैं  भी  चलूं  तुम्हारे  साथ
नहीं  रुकूंगी  ना-ना   भैया
बोली  नदी  हिला  कर हाथ

समय है कम और दूर है जाना कहती जाए नदिया।
बिना  रुके   मैदानों   में  चलती  जाए  नदिया।
000

गीतकार-डा0 अरविन्द दुबे
*पेशे से चिकित्सक एवम शिशु रोग विशेषज्ञ डा0 अरविन्द दुबे बाल एवम विज्ञान साहित्य लेखन के क्षेत्र में एक चर्चित एवम प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं।अरविन्द जी की अभी तक बाल साहित्य और विज्ञान साहित्य की लगभग दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।