मंगलवार, 3 फ़रवरी 2015

डरता चांद

आसमान पर ही रहता क्यों
नीचे नहीं उतरता चांद?
मां बतलाओ क्यों मुझसे
हर रात ठिठोली करता चांद?

दूर-दूर ही चमका करते
ये झिल-मिल झिल-मिल तारे।
पास बुलाऊं तो शरमा जाते हैं
सारे के सारे तारे।
इनसे भी बादल में छुपकर
आंख-मिचौली करता चांद।

मैंने कहा,एक दिन मेरे
आंगन में भी आ जाओ।
दूध-भात की खीर बनी है
मीठी-नीठी खा जाओ।
पर लगता है मेरे जैसे
छुटकू से भी डरता चांद।


आसमान पर ही रहता क्यों
नीचे नहीं उतरता चांद?
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रचनाकार-रमेश तैलंग  
बाल साहित्य के क्षेत्र में श्री रमेश तैलंग से हर पाठक परिचित है। 1965 से शुरू हुयी आपकी बाल साहित्य की यात्रा आज भी जारी।बाल साहित्य की कई पुस्तकें प्रकाशित। लम्बे समय तक हिन्दुस्तान टाइम्स समूह के साथ कर्य करने के उपरान्त अब स्वतन्त्र लेखन। फ़ेसबुक पर “World of Children’s Literature” समूह की स्थापना करके पूरे देश के बाल साहित्यकारों को एक साथ इकट्ठा करने का प्रयास।  सम्पर्क--09211688748


गुरुवार, 22 जनवरी 2015

आलस्य का फल

           
(चित्र-श्री राजीव मिश्र)
बहुत दिनों पहले की बात है जौनपुर जिले के पास एक छोटा सा गांव था परसरामपुर। इस गांव की आबादी बहुत कम थी। कुल आठ-दस परिवार पूरे गांव में रहे होंगे। इस गांव की मिट्टी उपजाऊ नहीं थी।इसीलिए गांव के लोग मजदूरी
, लुहारी, बढ़ईगीरी आदि अलग-अलग तरह के काम करके अपनी जीविका चलाते थे।
            इसी गांव में रघुनाथ नाम का एक बढ़ई रहता था। रघुनाथ का परिवार बहुत छोटा था। उसके परिवार में केवल उसकी पत्नी और उसका लड़का गोविन्द था।गोविन्द बहुत आलसी स्वभाव का था।वह दिन भर घर में बैठा रहता था कभी कोई काम नहीं करता था।इसी से रघुनाथ और उसकी पत्नी दोनों ही गोविन्द से नाराज रहते थे।रघुनाथ जंगल से लकड़ियां ले आता और उनसे छोटे-छोटे खिलौने बना कर बाजार में बेचने ले जाता।
                        एक दिन रघुनाथ की तबियत कुछ खराब थी। उसकी बाजार जाने की हिम्मत नहीं पड़ रही थी।इसलिए उसने गोविन्द को अपने पास बुलाया और उससे कहा,‘‘अरे गोविन्द! आज मेरी तबियत कुछ खराब है।मैं बाजार नहीं जा पाऊंगा। ऐसा कर कि तू ही बाजार चला जा और ये खिलौने बेचकर चला आ।रघुनाथ की बात सुनकर पहले तो गोविन्द बहुत आनाकानी करता रहा फिर जब रघुनाथ और उसकी पत्नी दोनों ने उसे डांटा तो वह किसी तरह बाजार जाने को तैयार हो गया।
                        गोविन्द जब लकड़ी के सारे खिलौने लेकर बाजार जाने लगा तो रघुनाथ ने उसे पास बुलाकर कहा,‘‘देखो बेटा गोविन्द अब तुम काफी बड़े और समझदार हो गये हो। आज मेरी तबियत खराब है इसलिए मैं तुम्हें बाजार भेज रहा हूं।तुम मेरी दो बातों का ध्यान रखना। पहली बात तो यह कि रास्ते में कहीं पर सोना मत।दूसरी बात यह कि तुम बाजार में किसी अनजान आदमी पर विश्वास करके उसका साथ मत करना।मेरी इन दो बातों का ध्यान रखोगे तो तुम अपने काम में जरूर सफल होगे।
                        गोविन्द ने उस समय तो रघुनाथ की दोनों बातों को बड़े ध्यान से सुन लिया लेकिन घर से निकलते ही वह उन बातों को भूल गया और बहुत आराम से धीरे-धीरे बाजार की तरफ बढ़ने लगा।
                        बाजार परसरामपुर गांव से करीब चार मील दूर था।रास्ते में एक बहुत घना आम का बगीचा भी पड़ता था।परसरामपुर से बाजार जाने वाले लोग बाजार जाते तथा लौटते समय उसी बगीचे में कुछ देर आराम करके तब आगे जाते थे।इसलिए हमेशा वहां पर दस बीस आदमी जरूर ठहरे रहते थे।
                        लेकिन उस बगीचे में ठहरने वालों को एक परेशानी होती थी।उस आम के बगीचे में बन्दर बहुत रहते थे जो जहां पर ठहरने वाले यात्रियों को काफी परेशान करते थे। बन्दर कभी किसी आदमी का खाना उठाकर भाग जाते, कभी किसी आदमी का कपड़ा या और दूसरा सामान लेकर भाग जाते।इसलिए उस बगीचे में ठहरने वाले लोग बड़े सावधान होकर आराम करते थे और प्रायः सोते नहीं थे।बस वहां कुछ देर आराम करके आगे बढ़ जाते थे।
                        गोविन्द भी पैदल चलते-चलते करीब एक घण्टे बाद उसी बगीचे में पहुंचा। बगीचे में पहुंचकर पहले उसने कुएं से पानी लेकर हाथ मुंह धोया फिर घर से लाया हुआ खाना वगैरह खाकर आराम से लेट गया।लेटते ही गोविन्द को नींद आने लगी।उसने सोचा कि क्यों न थोड़ी देर सो लिया जाय ? उसके बाद उठकर थोड़ा तेज चलकर मैं बाजार पहुंच जाऊंगा।बन्दरों से बचने के लिए उसने खिलौने की पोटली अपने सिरहाने रख लिया।गोविन्द तो आलसी था ही।थोड़ी ही देर में वह खर्राटे भरकर सोने लगा।
                        जब गोविन्द खाना खा रहा था उसी समय से आम के पेड़ पर बैठा मोटा बन्दर बड़े ध्यान से उसकी खिलौने की पोटली देख रहा था।उसने सोचा कि जरूर इस पोटली में भी कुछ खाने की चीज होगी।जब गोविन्द सो गया तो वह मोटा बन्दर धीरे से नीचे उतरा और गोविन्द के सिर के नीचे से खिलौने की पोटली लेकर बड़ी तेजी से भागा।मगर गोविन्द तो ठहरा आलसी उसकी नींद सिर के नीचे से पोटली निकल जाने पर भी नहीं खुली।परन्तु वहीं पर आराम कर रहे दूसरे कुछ लोगों ने बन्दर को पोटली ले जाते देख लिया।उन्होंने जल्दी से गोविन्द को हिला कर जगाया और उसे बताया कि उसकी पोटली बन्दर लेकर भागा जा रहा है।अब गोविन्द को होश आया।वह जल्दी से दूसरे लोगों के साथ बन्दर के पीछे लाठी लेकर दौड़ा।लेकिन बन्दर जल्दी से उछल कर पेड़ पर चढ़ गया और आराम से एक डाल पर बैठ गया।गोविन्द खड़ा देखता रहा।
           
(चित्र-राजीव मिश्र)
पेड़ पर बैठे बन्दर को जब पोटली खोलने पर उसमें खाने की कोई चीज नहीं मिली तो वह पोटली के सारे खिलौने उठा-उठा कर फेंकने लगा।कुछ खिलौने जमीन पर गिर कर टूट गये कुछ साबित बच गये।गोविन्द पेड़ के नीचे खड़ा रो रहा था।उसने जब बन्दर को खिलौने फेंकते देखा तो उसे थोड़ा सन्तोष हुआ कि चलो जो साबित खिलौने बचे हैं उन्हें ही बेचकर कुछ पैसा मिल जाएगा।बगीचे में ठहरे आदमियों की सहायता से उसने अपने टूटे तथा साबित दोनों तरह के खिलौनों को इकठ्ठा किया और बेचने के लिए बाजार चला गया।
                        गोविन्द जब खिलौने लेकर बाजार पहुंचा तो उसे काफी देर हो चुकी थी। बाजार में सभी दुकानदारों के सामान बिक चुके थे तथा वे सभी वापस जाने की तैयारी कर रहे थे।गांव से जो लोग सामान खरीदने आए थे वे भी अब वापस जाने की तैयारी कर रहे थे। गोविन्द अपने खिलौने सड़क पर सजाकर करीब एक घन्टे तक बैठा रहा परन्तु उसका कोई भी खिलौना नहीं बिका।गोविन्द को बहुत पछतावा हो रहा था कि बेकार ही बगीचे में सो गया था।अगर वह बगीचे में न सोया होता तो शायद उसका इतना नुकसान भी न होता और उसके सारे खिलौने भी बिक जाते।
                        अभी गोविन्द बैठा यह सोच ही रहा था कि घर चलकर वह अपने पिता को क्या जवाब देगा कि अचानक उसने एक मोटे आदमी को अपनी तरफ आते देखा।मोटा आदमी एक लुंगी और कुर्ता पहने हुए था।उसकी बड़ी-बड़ी मूंछें थीं और देखने में वह कोई बदमाश किस्म का आदमी लगता था।गोविन्द ने उसे अपनी तरफ आते देखा तो डर गया उसने सोचा कहीं ऐसा न हो कि यह आदमी मेरे खिलौने छीन ले।गोविन्द के पास आकर उस आदमी ने बहुत प्यार भरी आवाज में उसे पूछा,‘‘ क्यों बेटा।तुम्हारा अभी एक भी खिलौना नहीं बिक पाया ?
                        उसको इस तरह प्यार से बोलते देखकर गोविन्द को बड़ा आश्चर्य हुआ।उसने तो समझा था कि यह आदमी बड़ा बदमाश होगा।परन्तु यह तो बहुत सीधा आदमी लगता है। गोविन्द ने कहा, ‘‘नहीं बाबू जी।अभी तक मेरा कोई खिलौना नहीं बिका।
                        ‘‘इस पर वह आदमी बोला,ओहो..... बेटा! तब तुम्हें बड़ा दुःख होगा।तुम इतनी मेहनत से बनाकर खिलौने लाए पर अभी तक तुम्हारा एक भी खिलौना नहीं बिक सका। उस आदमी की बात सुनकर गोविन्द की आंखों में आंसू भर आए।वह धीरे-धीरे रोने लगा और मोटे आदमी से उसने जब तक घटी सभी घटनाएं बता दीं।
                        गोविन्द की बात सुनकर मोटे आदमी ने कहा,‘‘ऐसा करो बेटा!तुम ये सारे खिलौने मेरे हाथ बेच दो।मैं तुम्हें इन सारे खिलौनों के बदले में एक हजार रूपये दूंगा।                 एक हजार रूपये------ सुनकर गोविन्द की आंखें आश्चर्य से खुली रह गयीं।उसे विश्वास नहीं हो रहा था कि यह आदमी इतने थोड़े से खिलौनों के लिए एक हजार रूपये दे सकता है।गोविन्द ने मोटे आदमी से पूछा, ‘‘आप सचमुच एक हजार रूपये देने की बात कर रहे हैं या मजाक कर रहे हैं ?
                        ‘‘भला मैं क्यों मजाक करूंगा ? अरे तुम्हें खिलौना बेचना है तो मुझे अभी दे दो और तुम यहीं बैठो।पास में ही मेरा घर है वहां जाकर मैं अभी एक हजार रूपये लेकर आता हूं। मोटे आदमी ने गोविन्द से कहा।
                        गोविन्द मोटे आदमी के बहकावे में आ गया। उसकी आंखों के सामने एक हजार रूपये के नोट नाच उठे।उसने सोचा चलो ठीक है मैं यहीं थोड़ी देर इसका इन्तजार करता हू।यह आदमी अभी घर से एक हजार रूपये लेकर आ जाएगा।मेरे पिता जी जब एक हजार रूपये देखेंगे तो वे कितने प्रसन्न होंगे।यह सोचकर गोविन्द ने अपने सारे खिलौने उस आदमी को दे दिए और उससे बोला, ‘‘बाबू जी! आप रूपये लेकर जरा जल्दी आइएगा।क्योंकि मुझे अभी बहुत दूर वापस जाना है।
                        मोटे आदमी ने हॅसते हुए कहा, ‘‘हां! हां! बेटा!मैं बस पन्द्रह मिनट में वापस आ जाऊंगा।लेकिन जब तक मैं वापस न आऊं तुम यहीं बैठे रहना और एक हजार रूपये वाली बात किसी से कहना मत।
                        इतना कहकर मोटा आदमी गोविन्द के सारे खिलौने लेकर वहां से चला गया। इसके बाद गोविन्द वहां बैठकर मोटे आदमी के वापस आने का इन्तजार करने लगा।गोविन्द को वहां बैठे-बैठे करीब बीस मिनट बीत गये और वह आदमी अभी तक वापस नहीं आया। गोविन्द को थोड़ी चिन्ता होने लगी।उसने सोचा कहीं ऐसा तो नहीं कि वह आदमी मुझे धोखा देकर चला गया। फिर उसने सोचा थोड़ी देर और देख लूं तब किसी से उसके बारे में पूछूं। इसके बाद गोविन्द करीब एक घन्टे तक वहां बैठा रहा पर मोटे आदमी को न वापस आना था न वह वापस आया।गोविन्द वहीं बैठकर रोने लगा।जब बाजार के दूसरे दूकानदारों ने उसके रोने का कारण पूछा तो गोविन्द ने रोते-रोते अपने साथ अब तक घटी घटनाएं उन्हें बता दी। उसकी बात सुनकर एक बूढ़े दूकानदार ने गोविन्द को डाटते हुए कहा, ‘‘अरे बेटा! पहली गलती तो तूने यह की, कि रास्ते में आलस्य करके सो गया और तेरे सारे खिलौने बन्दर ने तोड़ दिए।उसके बाद भी तेरी अक्ल ठीक नहीं हुई और तूने यहां आकर एक अन्जान आदमी पर विश्वास कर लिया।और एक हजार रूपये के लालच में अपने सारे खिलौने उसे दे दिए।  बेटा वह आदमी तो बहुत बड़ा ठग है।इस बाजार में बहुत से दूकानदारों को वह अब तक धोखा दे चुका है।
                        बूढ़े आदमी की बात सुनकर गोविन्द जोर-जोर से रोने लगा।उसे अपने पिता जी की बतायी बातें याद आने लगीं।उसे दुःख हो रहा था कि अगर उसने अपने पिता जी की बातें मान ली होती तो इतना नुकसान न होता।गोविन्द को रोते देखकर उस बूढ़े आदमी को दया आ गई।उसने अपने पास से कुछ रूपये निकालकर गोविन्द को दे दिए और उससे बोला, ‘‘बेटा! अब यहां खड़े होकर रोने से कोई फायदा नहीं होगा।तुम ये रूपये लेकर अपने घर वापस चले जाओ।लेकिन आगे से ध्यान रखना कि कभी किसी काम में आलस्य मत करना और अपने माता-पिता की बतायी बातों को हमेशा ध्यान में रखना।
                        गोविन्द को बड़ा पश्चाताप हो रहा था।वह बूढ़े आदमी से रूपये लेकर अपने गांव की तरफ वापस चल पड़ा और उसने निश्चय किया कि अब वह हमेशा अपने माता-पिता की सलाह मानेगा और किसी काम में आलस्य नहीं करेगा।
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डा0हेमन्त कुमार

शुक्रवार, 9 जनवरी 2015

चंदा मामा

चंदा  मामा चंदा  मामा
तुम जल्दी से आ जाना
कु  प्यारे प्यारे से सपने
मेरी इन आँखों में लाना।
चंदा मामा
तुम जल्दी से आ जाना।

मामा  तुम जब आते हो
मन को  बहुत लुभाते हो
सभी मुझे  यह कहते है
कितना हमें सताते हो।
 चंदा मामा
तुम जल्दी से आ जाना।

मामा जब तुम आते हो
तो अम्मा भी आ जाती है
प्यारी प्यारी नई  कथाएं
हमको रोज सुनाती  है।
 चंदा मामा
तुम जल्दी से आ जाना।

मामा जब तुम आते हो
अम्मा लोरी गाती  है
हाथो से थपकी दे देकर
मीठी नींद सुलाती है 
 चंदा मामा
तुम जल्दी से आ जाना।
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कवियत्री-



बुधवार, 17 दिसंबर 2014

बड़ी बहादुर चींटी

                   
    जंगल के सारे जानवर सन्न रह गये।जैसे ही उन्हें पता चला कि चीं चीं चींटी ने रामू हाथी को कुश्ती के लिये ललकारा है,सब के सब भौचक।हर जानवर यही सोच रहा था कि चीं चीं चींटी का दिमाग खराब हो गया है।कहां इतना बड़ा रामू हाथी और कहां चीं चीं चींटी।कोई मेल ही नहीं दोनों का।जंगल के हर कोने में यही चर्चा चल रही थी।
     कई जानवर सच्चाई पता करने रामू हाथी के घर की ओर दौड़े।कुछ ने सोचा चलो चीं चीं चींटी से पता कर लें।बात सही भी है या नहीं।
        खबर उड़ते उड़ते जंगल के राजा गबरू शेर तक भी पहुंच गयी।सुनते ही माथे पर बल पड़ गये।उसने फ़ौरन खबर लाने वाले शेरू कुत्ते से पूछा,क्या जो बात तू कह रहा है वो सच है?
             “हां महाराज,बिल्कुल सही खबर दी है मैंने आपको।शेरू अपनी झबरी पूंछ हिलाता हुआ बोला।
                          गर्र----।गबरू की दहाड़ ने पूरे जंगल को हिला दिया।उसकी दहाड़ सुनकर शेरू कुत्ता भी कांप उठा।चीं चीं चींटी तो गई काम से।अब उसे गबरू शेर के गुस्से से कोई नहीं बचा सकता।शेरू ने कांपते हुए सोचा।अभी गबरू शेर उससे कुछ कहता कि सामने से रामू हाथी अपनी लंबी सूंड़ हिलाता हुआ कई दोस्तों के साथ हाजिर हो गया।वह बहुत गुस्से में दिख रहा था।
           “महाराज---की जय हो। रामू हाथी ने सूंड़ उठा कर गबरू को अभिवादन किया।
    “आओ----आओरामू बैठो।गबरू दहाड़ते हुये भी मुस्करा पड़ा।वह समझ गया कि रामू क्यों इतने गुस्से में है।
                  “क्या बैठूं महाराज---अब तो जंगल में रहना भी दूभर हो गया है।रामू फ़िर चिग्घाड़ा।अब देखिये उस---चीं चीं चींटी को---उसने मुझे कुश्ती लड़ने को ललकारा है।
       “अरे तो इसमें परेशानी की क्या बात?लड़ लो उससे कुश्ती।गबरू मुस्करा कर बोला।
   महाराज अब आप भी ऐसी बात कहेंगे।रामू हाथी दयनीय सूरत बना कर बोला।
       आप खुद ही सोचिये महाराज----अगर छोटे छोटे कीड़े मकोड़े हमें ऐसे ही ललकारते रहेंगे तो हमारा भय ही खतम हो जाएगा जंगल में।भला कौन हम बड़े जानवरों की इज्जत करेगा?भालू अपनी घुरघुराती आवाज में बोला।
    हां बात तो तुम लोगों की सही है।पर इसका उपाय क्या किया जाय?गबरू शेर कुछ सोचता हुआ बोला।
       इसका उपाय यही है महाराज कि मैं जा कर चीं चीं चींटी की पूरी बिल को तोड़ दूं।न रहे बांस न बजे बांसुरी।रामू हाथी गुस्से में पैर पटकता हुआ बोला।
        ना ना ---ऐसी गलती मत करो।सब तुम्हें ही कहेंगे कि चुपके से जाकर चींटी के घर में उसे मार दिया।गबरू शेर ने उसे समझाने की कोशिश की।
   तो क्या करूं?उसको यूं ही जंगल में सबसे कहने दूं कि वो मुझसे कुश्ती लड़ने वाली है।रामू हाथी खिसिया कर बोला।
      नहीं मेरी मानो तो तुम उसका चैलेंज स्वीकार कर लो।और खुले मैदान में उसे सबके सामने हराओ।ताकि दूसरे जानवरों और कीड़े मकोड़ों को भी सबक मिल सके।गबरू दहाड़ कर बोला।
     हां रामू दादा---महाराज ठीक कह रहे हैं।भालू अपने नथुने खुजला कर बोला।
         “ठीक है महाराज----फ़िर मैं कब लड़ूं उससे कुश्ती?रामू ने पूछा।
       “शुभ काम में देर किस बात की।कल ही रख लो।गबरू ने जवाब दिया।
            “और हां,शेरू तुम जाकर चींटी को बता दो कि रामू हाथी उससे लड़ने को तैयार है।और बंदर से कहकर पूरे जंगल में इस बात की डुगडुगी पिटवा दो कि मेरी गुफ़ा के सामने कल दोनों की कुश्ती होगी।फ़िर रामू हाथी,भालू और शेरू वहां से चले गये और गबरू भी आराम करने लगा।
      अगले दिन सबेरे ही जंगल के सारे जानवर,पक्षी,कीड़े मकोड़े गबरू शेर की गुफ़ा के सामने इकट्ठे हो गये।आखिर इतनी मजेदार कुश्ती जो होनी थी वहां।ज्यादातर जानवर जमीन पर और पक्षी पेड़ों पर बैठे थे।गबरू अपनी गुफ़ा के चबूतरे पर बैठा था।रामू हाथी भी आ चुका था।सबको इन्तजार था तो बस चीं चीं चींटी का।सब आपस में बात कर ही रहे थे तभी चीं चीं चींटी भी आ गयी।गबरू शेर ने दहाड़ कर सबको खामोश कराया।
  अब आप लोग शान्त हो जाइये।रामू और चींटी दोनों आ चुके हैं।गबरू के कहते ही सब खामोश हो गये।
     गबरू ने रामू हाथी और चीं चीं चींटी को सामने आने का इशारा किया।दोनों बीच की खाली जगह पर आ गये।भालू हाथ में सीटी लेकर रेफ़री बन कर खड़ा हो गया।रामू हाथी बहुत ही गुस्से में चीं चीं चींटी को घूर रहा था।
   सुनो रामू हाथी और चीं चीं चींटी---तुम लोग मेरे पंजे का इशारा होते ही कुश्ती शुरू कर दोगे।कोई एक दूसरे को जान से मारने की कोशिश नहीं करेगा। गबरू शेर दहाड़ा।
       ठीक है महाराज---।रामू भी चिग्घाड़ पड़ा।साथ ही चींटी भी अपनी महीन आवाज में कुछ बोली पर उसकी आवाज रामू की चिग्घाड़ में दब गई।
    जैसे ही गबरू ने पंजे का इशारा किया रामू ने अपना अगला पैर उठा कर चीं चीं चींटी के ऊपर रखना चाहा।सबकी सांसें रुक गयीं।लगता है नन्हीं चींटी गयी—”पेड़ पर बैठा तोता चीखा।पर हाथी का पैर पड़ने से पहले ही चींटी अपनी जगह छोड़ कर उसके पीछे वाले पैर की तरफ़ भागी।रामू  हाथी फ़ुर्ती से फ़िर घूमा।इस बार हाथी ने दूसरा पैर उठाया तब तक चीं चीं करती हुयी चींटी उसके एक पैर पर चढ़ चुकी थी।रामू हाथी पैर पटकता हुआ जमीन पर चींटी को ढूंढ़ रहा था और चीं चीं चींटी तेजी के साथ भागती हुयी उसकी सूंड़ में घुस गयी।रामू अभी भी उसे जमीन पर ही खोज रहा था।भालू कभी रामू के आगे कभी पीछे जा रहा था कि शायद कहीं चीं चीं चींटी दिख जाय।
           ठीक उसी समय चींटी ने रामू की सूंड़ में काटना शुरू कर दिया।रामू हाथी अपनी सूंड़ ऊपर उठा कर बड़ी जोर से चिग्घाड़ा।चींटी ने उसे फ़िर काटा।रामू फ़िर चिग्घाड़ा।और फ़िर तो चींटी रामू की सूंड़ में काटती रही और रामू पैर पटक पटक कर चिग्घाड़ता रहा।अंत में रामू हाथी बेदम होकर जमीन पर बैठ गया।वह बहुत ही दयनीय आवाज में बोला,,अरे चीं चीं चींटी अब मत काटो मुझे---तुम जीत गयी मैं हार गया।अब छोड़ दो मुझे---।
             रामू की हालत देखकर सारे जानवर हंसने लगे।गबरू भी हंस पड़ा।उसने भी चींटी को समझाया—“अब इसे छोड़ भी दो नन्हीं चींटी---बेचारा हार तो गया है।अंत में चीं चीं चींटी फ़ौरन चीं चीं करती हुयी रामू की सूंड़ से बाहर आ गयी।और रामू हाथी तेजी के साथ घने जंगल की ओर भागता चला गया।
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डा0हेमन्त कुमार

सोमवार, 17 नवंबर 2014

सर्कस से भागा जब भालू----।

सर्कस से भागा इक भालू
साथ में उसके बंदर कालू
भालू के था हाथ में सोटा
सीटी लिये था साथ में कालू।

चौराहे पर जाम दिखा तो
पहुंचे पुलिस बूथ पर दोनों
बंदर सीटी बजा रहा था
सोटा ले के जुट गया भालू।

सारे पुलिस बूथ से भागे
नया दरोगा सबसे आगे
बंदर भालू ने जल्दी से
जाम हटा के सड़क की चालू।
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डा0हेमन्त कुमार

गुरुवार, 13 नवंबर 2014

बाल दिवस और चाचा नेहरू

                           

                   
14 नवम्बर का दिन सारे भारतवर्ष में स्वर्गीय पं0 जवाहर लाल नेहरू जी के जन्म-दिन तथा बाल-दिवस के रूप में बड़ी धूम-धाम से मनाया जाता है।नेहरू जी के हृदय में बच्चों के लिए असीम स्नेह था।नेहरू जी बच्चों को जितना प्यार करते थे उससे कहीं अधिक बच्चे उन्हें प्यार करते थे।बच्चे उनमें इतनी अधिक आत्मीयता का अनुभव करते थे कि वे उन्हें प्यार से चाचा-नेहरू कहने लगे। यदि आप किसी बच्चे से यह पूछें कि 14 नवम्बर को क्या है ? तो वह तुरन्त ही आपसे कहेगा कि उस दिन हम सबके चाचा नेहरू का जन्म दिन है।
         वास्तव में नेहरू जी ही संसार में सम्भवतः एक ऐसे महापुरूष हुए हैं जिनके नाम पर करोड़ों बच्चे अपना उत्सव दिवस मनाते हैं।वैसे तो विश्व में अनेक ऐसे महापुरूष हुए हैं जिन्होंने बालहित के बहुत से कार्य किये हैं।उदाहरण के लिए शिक्षा के क्षेत्र में मैरिया मान्टेसरी और जान ड्यूक का बहुत बड़ा योगदान रहा है।इन शिक्षा-शास्त्रियों ने बाल शिक्षा के स्वरूप् को बिल्कुल ही बदल दिया।लेकिन नेहरू जी ने बच्चों को जो स्नेह, जो प्यार दिया वह शायद कोई नहीं दे सका।नेहरू जी जब कभी भी बच्चों से मिलते थे उनका चेहरा खिल उठता था, उनकी उदासी छंट जाती थी।यही कारण है कि 14 नवम्बर उनका जन्म-दिवस बाल-दिवस के रूप में पूरे भारत में बड़े धूम-धाम के साथ मनाया जाता है।
       नेहरू जी ने एक स्थान पर स्वयं लिखा है कि, ‘‘ बच्चों के बीच आत्मा के सारे द्वार खुल जाते हैं, मन के सारे प्रवाह मुक्त हो जाते हैं, मैं अपने जीवन को बोझ से मुक्त करने के लिए बच्चों के निकट जाता हूं। मेरी थकान, मेरे मन की क्लान्ति इन शुद्ध-बुद्ध फरिश्तों के बीच ही दूर होती है-- काफी खोज के बाद इस राज को मैंने हासिल किया है।
    उन्हें बच्चों से इतना अधिक स्नेह था कि भारतवर्ष जैसे महान देश के प्रधानमन्त्री पद पर होने के कारण, अपने अत्यन्त व्यस्त जीवन में से भी नेहरू जी बच्चों से मिलने, उनके साथ खेलने-कूदने तथा उन्हें ज्ञान की बातें बताने के लिए समय निकाल लेते थे।नेहरू जी जिस समय बच्चों के बीच पहुंचते थे वे यह भूल जाते थे कि वे एक देश के प्रधानमन्त्री हैं। वे स्वयं को भी बच्चा ही समझने लगते थे।नेहरू जी बच्चों के साथ क्रिकेट भी खेलते थे, कबड्डी भी खेलते थे, वे बच्चों के साथ हरी-हरी घास में दौड़ते भी थे और छोटे-छोटे बच्चों की भांति रंग-बिरंगी तितलियों को पकड़ने भी दौड़ पड़ते थे।जब तक नेहरू जी जीवित रहे वे हर 14 नवम्बर को बच्चों से जरूर मिलते थे।इस दिन बच्चे भी अपने प्यारे चाचा नेहरू को उनका प्यारा गुलाब का फूल भेंट करते थे और नेहरू जी अपने जन्म-दिन के अवसर पर बच्चों को तरह-तरह की चीजें भेंट करते और बाल-दिवस का दिन चाचा नेहरू जिन्दाबाद के नारों से गूंज उठता था।
       
नेहरू जी हमेशा दूर की बात सोचते थे।वे जानते थे कि आज के बच्चे ही कल के नेता होंगे और उनके द्वारा ही भारतवर्ष के भविष्य का निर्माण होगा। इसीलिए उनका कहना था कि ‘‘यदि हमें देश में खुशहाली लानी है तो इसकी शुरूआत बच्चों से ही होनी चाहिए। वे बच्चों को हमेशा अपने पैरों पर खड़े होने की सलाह देते थे।वे उनमें ही भारत की खुशहाली के बीज देखते थे।उन्हें हमेशा मेहनत करने की बात समझाते थे।सन् 19580 में बाल-भवन की नींव रखते हुए नेहरू जी ने कहा था-- ‘‘मां-बाप को चाहिए कि बच्चों को अपनी जिम्मेदारी समझने दें जो अपने लिए खुद काम नहीं कर सकता वह दूसरों के लिए क्या काम करेगा ?
देश के बच्चे चाचा नेहरू को कभी भी नहीं भूल सकते। उन्हें उनके उपदेश, उनकी बातें सब पूरी तरह याद हैं। नेहरू जी का जीवन उनके लिए एक आदर्श है। पंडित नेहरू का अंग्रेजी में लिखा एक निबन्ध ‘‘मेरे प्यारे बच्चों (माई डियर चिल्ड्रेन) जो बच्चों के नाम है, एक महत्वपूर्ण दस्तावेज है।
       नेहरू जी का विचार था कि बालक अपने भावपूर्ण नेत्रों में कुछ सपने लिए रहता है। उन सपनों की पूर्ति ही बालक का व्यक्तित्व है और उसकी पूर्ति निर्भर है अभिभावकों अथवा उनके माता-पिता पर।बालक के व्यक्तित्व का निर्माण माता-पिता के पारस्परिक सम्बन्ध तथा बालक के प्रति स्नेह प्रदर्शन से लेकर स्कूली शिक्षा तथा उन बाल-पुस्तकों पर निर्भर करता है, जिन्हें वह पढ़ता है। माता-पिता जहां स्नेह की मूर्ति होते हैं वहीं शिक्षक भी होते हैं।वे बालकों को प्रत्यक्ष शिक्षा देते हैं।
        बालक के विकास के दो प्रमुख पहलू हैं--शारीरिक और मानसिक।मानसिक विकास शारीरिक विकास से अधिक महत्वपूर्ण है।किन्तु शारीरिक विकास भी कम महत्वपूर्ण नहीं है। बालक का शारीरिक विकास उसके उचित पोषण, खेल-कूद, खुले वातावरण तथा चिकित्सा पर निर्भर है।स्वस्थ रहने के लिए जहां बच्चे को उचित पोषण देना, स्वस्थ वातावरण में रखना आवश्यक है वहीं उसके लिए खेल-कूद भी जरूरी है।खेल-कूद से बालक में संयम तथा उत्तरदायित्व की भावना बढ़ती है। गांधी जी भी बच्चों के खेल-कूद पर बड़ा बल देते थे। उन्होंने एक लेख में लिखा था।‘‘बच्चों के लिए खेलना जरूरी है।खेल-कूद से अधिक श्रम और संयम से काम करने का बल मिलता है।
             बच्चों के मानसिक विकास की समस्या अधिक पेचीदी है।इसकी व्यवस्था का उत्तरदायित्व बड़े लोगों, अभिभावकों या माता-पिता, परिवार तथा समाज पर होता है। बालक के भावी सामाजिक जीवन की नींव छोटी-छोटी घटनाओं से पड़ती है।परिवार में बालक सामाजिक मूल्यों के प्रति आस्था भी सीखता है और अनास्था भी।अतः अच्छा नागरिक बनने के लिए यह आवश्यक है कि बालक स्वस्थ समाज में ही बड़ा हो।
         यदि बालक को स्नेह, सौहार्द्र, त्याग एवं बलिदान की शिक्षा दी जाय, तो वह योग्य नागरिक, कर्मठ कार्यकर्ता तथा निष्काम समाजसेवी बन सकता है।विकास की प्रक्रिया उसी क्षण से आरम्भ हो जाती है जब शिशु धरती पर आंखें खोलता है।नेहरू जी का भी विचार था कि बालक में विशिष्ट गुणों का समावेश समाज को स्वयं सुन्दर बना सकता है।
    समाज देश के उत्थान की मुख्य इकाई है।यदि हम देश का कल्याण चाहते हैं तो हमें स्वस्थ समाज की रचाना करनी होगी और वह तभी सम्भव होगा जब हम आज से ही इन नन्हें-मुन्ने बच्चों को अच्छा नागरिक बनाने के लिए पूरी तरह से जुट जाएं। इस कार्य को पूरा करने के लिए मां-बाप, परिवार, समाज तथा शासन सभी का सहयोग मिलेगा तभी इसका फल प्राप्त होगा।
         बच्चों को चाहिए कि वह अपने प्रिय चाचा नेहरू के आदर्शों का पालन कर अच्छे नागरिक बनें और देश की, समाज की सेवा करें।तथा अपने जीवन में कुछ ऐसे महान कार्य करें जिससे उनके तथा हम सबके प्यारे भारत देश का मस्तक गर्व से और ऊंचा हो जाय। नेहरू जी को बच्चों पर बड़ा भरोसा था। एक बार उन्होंने कहा था, ‘‘प्यारे बच्चों ! लो यह सबसे बड़ा तोहफा मैं तुम्हें देता हूं-- हिमालय से लेकर कन्याकुमारी तक का हिन्दुस्तान--इसे सम्भालों। इस तोहफे की हर बच्चे को जी जान से रखवाली करने है तथा अपने आचरण और कार्य कलापों से अपने चाचा नेहरू के उस स्वर्णिम भारत के स्वप्न को पूरा करना है जिसके लिए वे जीवन भर लड़ते रहे।
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ड़ा0हेमन्त कुमार

मंगलवार, 11 नवंबर 2014

हमारा प्यारा गांव

   छोटे छोटे बच्चों द्वारा अपने गांव को आदर्श गांव बनाने की कहानी