मंगलवार, 6 दिसंबर 2016

शाबाश तन्मय

शाबाश तन्मय
                                                      लेखक-प्रेम स्वरूप श्रीवास्तव
      
        तन्मय हर तरह से एक अच्छा लड़का था।पढ़ाई-लिखाई मे तेज।स्कूल से आते ही अपने  जूते-मोजे,स्कूल ड्रेस सब ठीक से रख देता।स्कूल का होम वर्क रोज़-रोज़ का रोज़ पूरा करता।फ़िर मम्मी-पापा के कामों में हाथ बटाता।
    यह सब ठीक था।पर मम्मी उसकी एक आदत को एकदम।नापसन्द करती थीं।अभी उस दिन एक घायल गिलहरी को उठा लाया।शायद दौड़ भाग मे पेड़ से गिर कर घायल हो गई थी।मम्मी के बिगड़ने पर बोला--आप परेशान मत हो। ऐसे ही छोड़ देता तो कुत्ता बिल्ली कोई भी इसे खा जाता।अभी डाक्टर अंकल से इसे दवा लगवा कर आता हूं।ठीक होते ही इसे फ़ुदकने के लिये छोड़ दूंगा।
                  इस तरह कभी चोटिल गौरेया को तो कभी घोंसले से गिरा कोयल का बच्चा।सबका इलाज करते थे डाक्टर अंकल।वे एक पशु चिकित्सालय मे डाक्टर थे।तन्मय के इस काम से उन्हें बड़ी खुशी मिलती थी।वो कहते-बेटा,जीव जन्तुओं के प्रति तुम्हारा यह प्रेम औरों के लिये भी आदर्श बनेगा।
       बेचारे पापा मम्मी का मान रखने के लिये उनकी हाँ में हां मिलाते रहते थे।वरना वे समझते थे,तन्मय एक बड़ा ही नेक काम कर रहा है।
        मगर कल तो गज़ब हो गया।तन्मय सड़क पर आवारा घूमते एक छोटे से पिल्ले को उठा लाया।देखते ही मम्मी गुस्से से आग बबूला होकर बोली-अब तेरी यह आदत तो हद पार कर रही है।देखो तो कितना गँदा पिल्ला उठा लाया।
       
मम्मी जी आप चिन्ता ना करें।मैं इसे अभी नहलाता हूं।इसे बाहर जाकर पोटी भी करना सिखा दूंगा और हां मम्मी,अब यह कुत्ते का पिल्ला नहीं,मूलन्द है।आपको कैसा लगा यह  नाम? तन्मय मुस्कुरा कर बोला।
       मूलचंद के नाना,इसका नाम मूलचन्द रक्खो या फूलचन्द।मगर इसे उठा लाने की क्याजरूरत थी।यह तो मुझे अन्धा भी दिखाई दे रहा है।मम्मी और भी गुस्सा होकर बोलीं।
जानता हूं मम्मी जी।इसीलिए तो इसे और भी उठा लाया। इधर से उधर भटक रहा था बेचारा।अगर मैं न ले आता तो जरूर किसी गाड़ी के नीचे आकर मर जाता।
      ठीक है। शाम को तेरे पापा आएँगे तो वो ही तेरी खबर लेंगे।यह कह कर मम्मी अपने काम मेँ लग गईं।
   पापा ने शाम को आफ़िस से आते ही शिकायत सुनी।उन्होंने भी गुस्से से आंखें लाल पीली कीं।एक आंख दबा कर तन्मय की ओर देखा।फ़िर छ्डी लेकर उसके पीछे दौड़े।अब आलम यह था कि आगे -–आगे तन्मय  पीछे मूल्चन्द  और उसके भी पीछे छड़ी लिए पापा आंगन मेँ दौड़ लगा रहे थे।मम्मी यह सब देख कर संतुष्ट।फ़िर बोलीँ---जाने दो मारना मत।पापा और तन्मय मम्मी के मुंह से यही तो सुनना चाहते थे।इस बार तन्मय ने पापा को एक आंख दबा कर देखा और मुस्कुरा दिया।
      अब तो घर में मूलचन्द के मजे ही मजे थे।तन्मय के हाथोँ स्नान,उसी के पास दौड़ कर खाना।बड़ा अच्छा लग रहा था उसे यहां आकर।
            एक दिन तन्मय को अचानक खयाल आया—मूलचंद कभी भूल से भी घर के बाहर निकल गया तो ना जाने क्या गुजरे।सबसे बढ़ कर आवारा कुत्तों को पकड़ने वाली गाड़ी ही उसे पकड़ कर ले जा सकती है।अच्छा हो कि उसके गले के लिये एक पट्टा खरीद लूं।पट्टे वाले कुत्तों को लोग जानते हैं कि यह पालतू है।एक छोटी सी चेन भी।मगर मम्मी पापा इसके लिये पैसे क्यों देंगे?फ़िर भी पास वाले किराना स्टोर वाले अंकल के यहां देख तो लिया ही जाय।
        वह किराना स्टोर पहुंच गया।पीछे पीछे मूलचंद।अंकल उसे पहचानते थे।देखते ही बोले—अरे तन्मय तुम यहां?साथ में यह पिल्ला भी?
      हां,अंकल,मूलचंद अंधा है।मगर सूंघकर और आहट से बहुत कुछ जान जाता है।मैं इसे घर ले आया नहीं तो किसी दिन किसी गाड़ी से दब कर मर ही जाता।
यह तो तुमने बड़ा शाबाशी का काम किया बेटे।क्या कुछ चाहिये?
    क्या इसके गले के नाप का पट्टा होगा?
    हां,क्यों नहीं होगा?
    और एक चेन भी।
   हां वह भी मिल जायेगी।क्या निकालूं?अंकल ने पूछा।
   नहीं अंकल। अभी चुकाने के लिये मेरे पास पैसे नहीं हैं।
   चलो,इसके बदले में देने के लिये तुम्हारे पास क्या कुछ है?
    अंकल,मेरे पास तो बस ये एक लाल रंग का कंचा है।यह मुझे बहुत प्रिय है।तन्मय कुछ निराशा से बोला।
जरा देखूं तो सही।तन्मय ने जेब से कंचा निकाल कर दिखाया।उसे देख कर अंकल बोले—नहीं तन्मय,मुझे तो हरा कंचा चाहिये था।तुम सामान ले जाओ।पैसे हो जायें तो दे जानां। नहीं तो हरे रंग का कंचा।
  धन्यवाद अंकल।कह कर तन्मय चलने को हुआ तो अंकल फ़िर बोले—अरे बेटे,इसके खाने वाले बिस्कुट और नहलाने वाला साबुन भी तो लेते जाओ।
बेल्ट में लगी चेन को पकड़ कर मूलचंद को घर ले जाते समय तन्मय बहुत खुश था।
      उसके जाते ही किराने वाले की पत्नी बोली-भला उसे मुफ़्त में इतना सामान क्यों दे दिया?गरीब बच्चों के साथ ऐसा करते हो तो कुछ समझ में आता है।ये तो पैसे वाले लोग हैं। हरा कंचा लेकर आयेगा तो बहाना बना दोगे कि नहीं,मुझे तो अब नीला कंचा चाहिये।क्यों?
       तुम नहीं समझोगी राधा।पर जरा इस बच्चे का इतना नेक काम तो समझो।मम्मी पापा इसे क्या पैसे देंगे?उलटे उस पर ही डांट पड़ेगी।पैसे चुरा कर ये सब ले आने का आरोप लगेगा।उसके लिये हम इतना भी नहीं कर सकते?देखना आज या कल में इसकी मम्मी मुझसे पूछने दौड़ी आएंगी।
        मम्मी पहले आक्टर अंकल के पास पहुंच गयीं।उनसे बोलीं—डाक्टर साहब,आप तन्मय के इन बेतुके कामों को क्यों बढ़ावा देते हैं?
     डाक्टर बोले—बहन जी,आपका तन्मय तो शाबाशी पाने का काम कर रहा है।उसे बेतुका मत कहिये।आज हम प्रकृति से कितना दूर होते जा रहे हैं।उसके बुरे नतीजे भी हम भोग रहे हैं।आप जरूर जानती होंगी ये पशु-पक्षी उसी प्रकृति के ही तो अंग हैं।तन्मय तो जाने अन्जाने उनकी सेवा कर हमें प्रकृति से जुड़ने की प्रेरणा दे रहा है।आपको तो प्रसन्न होना चाहिये।
   
इस अच्छी बात के आगे मम्मी क्या बोलतीं।चुपचाप लौट पड़ीं।यहां से वे किराना स्टोर पहुंच गयीं।उन्होंने उसके मालिक से पूछा----आपने तन्मय को इतना सामान पैसे लेकर ही दिया है न?
नहीं बहन जी।मालिक ने जवाब दिया।
तो आपने इतने रूपयों का सामान उसे यों  ही दे दिया?मम्मी ने अविश्वास से पूछा।
    जी हां,आपका बच्चा इतना नेक काम कर रहा है।मासूम पशु-पक्षियों की जान बचाना तो हमारे धर्म में भी लिखा हैअम जिस अंधे पिल्ले को ठोकर मारते उसकी जान बचाने के लिये वह उसे घर ले आया।हम तन्मय के लिये इतना भी नहीं कर सकते?और हां,उसे वह सामान एक हरे कंचे के बदले में दिया है।उससे कहियेगा कि इधर आए तो हरा कंचा लेता आए।मालिक मुस्कुराकर बोला।
           मम्मी के भीतर अभी तक डाक्टर के शब्द गूंज रहे थे।अब किराना वाले के ये शब्द।उनकी आंखें भर आईं।बेचारा तन्मय पढ़ाई में भी इतना तेज है।घर के भी इतने काम संभाले रहता है।उस पर से पशु-पक्षियों के लिये इतना लगाव,इतना सेवा भाव।
         अगले दिन तन्मय और उसके पापा आश्चर्य में पड़ गये।मम्मी मूलचंद के बिछाने और ओढ़ने के लिये गद्दियां सिल रही थीं।पापा ने मुस्कुरा कर तन्मय की पीठ ठोंकी---शाबाश तन्मय।
     मम्मी की शाबाशी तो उनके काम में ही बोल रही थी।तन्मय आज पहली बार भीतर से गदगद हो उठा।वह दौड़कर मम्मी से लिपट गया।
    मम्मी ने देखा—उनके सामने खड़ा मूलचंद भी दुम हिला रहा था।अंधा होते हुये भी जैसे उसे मम्मी के प्यार का एहसास हो रहा था।
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प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव
11मार्च,1929 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म।31जुलाई 2016 को लखनऊ में आकस्मिक निधन। शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी नौकरी।पिछले छः दशकों से साहित्य सृजन मे संलग्न।देश की प्रमुख स्थापित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों,नाटकों,लेखों,रेडियो नाटकों,रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन।आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।
बाल कहानियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।वतन है हिन्दोस्तां हमारा(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का ताराआदि बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह सफ़र 87 वर्ष की उम्र तक निर्बाध चला।