शुक्रवार, 24 सितंबर 2021

बारिश में कुहरा छाया है!

 बंधु कुशावर्ती जी से मेरा परिचय लगभग चार दशक से है।मैं उन्हें अभी तक बाल रंगमंच और बाल साहित्य के समीक्षा और आलोचना पक्ष के लिए ही जानता था।लेकिन उनके द्वारा वहाट्सऐप पर भेजी गयी एक बाल कविता पढ़ कर मुझे सुखद आश्चर्य हुआ।उन्होंने बताया कि उन्होंने यह बाल कविता लगभग बीस साल बाद लिखी है।बंधु जी इन दिनों अपने गाँव गए हुए हैं।यह सम्भवतः उनके गाँव प्रवास का ही असर है जो वहां की प्राकृतिक सुन्दरता से मुग्ध होकर उन्होंने यह प्यारी बाल कविता लिखी आप भी बंधु जी की इस रचना का आनंद उठाइये।      

बारिश में कुहरा छाया है!



गज़ब! गाँव में बारिश के दिन।

कुहरा-धुँन्ध भरे  नभ  के दिन।

अजब सुबह कुहरा  छाया  है !

जाड़े  बिना,  धुन्ध   आया  है!

 

पेड़  दिख  रहे  धुँधले - धुँधले !

हरियाली  भी  धुँधली - धुँधली !

खेत   धान  के   धुँधले - धुधले!

प्रकृति हुई सब , धुँधली-धुँधली!

 

सूरज   अभी  नहीं  निकला  है!

दिखता  सब धुँधला-धुँधला  है !

पूरब   में   जो   पीला - धुँधला !

शायद   यह   सूरज  का  गोला !

 


ताक-झाँक की कोशिश में अब !

सूरज   भी   बनने    को   बेढब!

पूरी     ताकत   लगा   रहा    है !

अजमाता  है  सब  के सब  ढब !

 

अब नीला आकाश  दिखा  कुछ!

धुँन्ध  ' कुहरा भी छँटता कुछ!

प्रकृति-खेत-तरु भी कुछ दिखते!

दूर क्षितिज भी, दिखता  है कुछ !

 

सूरज   में   भी   चमक  बढी़  है।

धमक  धूप   की  भी  छितरी  है!

नभ   में   भी  आये   हैं   बादल!

धुँन्ध  '  कुहरे   हुए  बेदखल!

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कविता व चित्र--बंधु कुशावर्ती

परिचय:

० अवध-क्षेत्रीय शहर सुल्तानपुर(उ०प्र०) के सांस्कृतिक पृष्ठभूमि वाले मध्यवर्गीय परिवार में 5 अक्टूबर1949 को जन्म।14-15वर्ष की छात्रावस्था से ही लेखन की शुरुआत।मूर्धन्य लेखकों का निरंतर सान्निध्य लाभ।विविध विधाओं में मुख्य-धारा के लेखन-प्रकाशन का पत्र-पत्रिकाओं में अनवरत सिलासिला।समानांतर ही बाल साहित्य,बाल रंगमंच के बहुविध लेखन व क्रियाकलापों में संलग्न।सांस्कृतिक-साहित्यिक पत्रकारिता से भी सघन-जुड़ाव।बाल-साहित्य विषयक गहन मूल्यांकन व विवेचानापरक साहित्य इतिहास लेखन।समीक्षा-आलोचना केन्द्रित 3 खण्डों की लेखानाधीन शोधकृति।बाल्साहित्यालोचन:अभिनव हस्तक्षेप” प्रकाशित।2014में उत्तर प्रदेश हिन्दी संस्थान द्वारा बाल साहित्य पत्रकारिता के लिए “लल्ली प्रसाद पाण्डेय बाल साहित्य पत्रकारिता” सम्मान से समादृत  

संपर्क:456/247,दौलतगंज,(साजन मैरिज हाल के सामने),डाकघर:चौक,लखनऊ-226003,मोबाइल-08840655314           

 

सोमवार, 16 अगस्त 2021

बाल कहानी -- जंगल में सफाई अभियान

 

बाल कहानी

जंगल में सफाई अभियान



एक बार कानन वन के राजा शेर सिंह ने अपने दरबार में मंत्रियों की सभा बुलाई तो अचानक इस बुलावे पर सभी मंत्रीगणों में आपस में काना-फूसी होने लगी की आखिर बात क्या है।जंगल में तो सब ठीक-ठाक चल रहा है।

           खैर, राजा का बुलावा था तो सभा में जाना तो था ही।सभी मंत्रीगण निर्धारित समय पर सभा में पहुँच गए।

      राजा शेर सिंह भी आकर अपने सिंघासन पर आसीन हुए।उन्होंने एक जोर की दहाड़ मारी और बोलना शुरू किया कि—“आप सभी सोच रहे होंगे कि मैंने अचानक ये सभा क्यों बुलाई?” तो सभा में फिर थोड़ी हलचल मची।

राजा शेर सिंह ने कहा कि – “चिंता की कोई बात नही।बस मेरे मन में एक विचार आया तो सोचा की आप सभी मित्रों के सामने अपनी बात रक्खूं।”

सभी एक दूसरे का मुँह देखने लगे।राजा शेर सिंह ने कहा कि-“देखिये शहर में कितना प्रदूषण फैला हुआ है और उसको रोकने के लिए सरकार पर्याप्त व्यवस्था भी कर रही है।”

शेर सिंह ने एक बार जोर से जम्हाई ली और आगे फिर बोला—“ दूसरी ओर शहरों के विकास के लिए मनुष्य पेड़ों को तो काट ही रहा है साथ ही अपने यहाँ का सारा कचरा लाकर हमारे जंगल के बाहर फेंक रहा है जिससे हमारा जंगल भी प्रदूषित हो रहा है।तो क्यों ना हम भी ऐसी कोई व्यवस्था करें कि हमारा जंगल भी सुरक्षित बचा रहे।”

शेर के चुप होते ही जानवरों में खुसुर-पुसुर शुरू हो गयी।

शेर सिंह फिर से दहाड़ा—“भाई आपस में खुसुर-पुसुर मत करिए।सब एक एक कर बारी-बारी अपने विचार रखिये।”  

राजा शेर सिंह ने अपनी बात आगे बढाई—“लेकिन एक समस्या है।”

“वो क्या?सभी एक साथ बोले।

  राजा शेर सिंह ने कहा-“ केवल अपना जंगल सुरक्षित रखने से कोई फायदा नहीं होगा।इसके लिए जरूरी है कि हमारे आस-पास के जंगल भी साफ़ सुथरे रहें।इसके लिए हम सबको एकजुट होना पड़ेगा।”

          तब इस जंगल के मंत्री बलवान भालू उठ कर खड़े हुए और बोले-“ इसके लिए हमें क्या करना होगा महाराज? शेर सिंह ने कहा कि-“हमने एक उपाय सोचा है।क्यों न हम हर जंगल के राजा को इस अभियान के प्रति जागरूक करें।और सभी एक साथ मिलकर इस अभियान को पूरा करें।”

   राजा के इस विचार का सभी ने जोरदार तालियों द्वारा स्वागत किया।

अब समस्या ये थी कि हर जंगल में जाकर वहां के राजा को सूचित कैसे किया जाए? इस काम के लिए झुमरू बन्दर को चुना गया जो जल्दी-जल्दी हर जंगल में जाकर महाराजा शेर सिंह की  ये सूचना सबको  पहुंचा सके। 

झुमरू बंदर ने अगले दिन से ही फटाफट अपना कार्य शुरू कर दिया और तिन चार दिनों में  ही राजा शेर सिंह को सूचित कर दिया कि सभी जंगलों के राजा इसके लिए तैयार हैं।और उन्होंने अपना पूरा सहयोग देने का वादा किया है।यह सुन कर शेर सिंह बहुत प्रसन्न हुए।और इस तरह सभी के सहयोग से कुछ ही समय में कानन वन के साथ ही उसके आस पास के सभी जंगल साफ़ सुथरे होते चले गए।

                            ००००


लेखिका--पूनम श्रीवास्तव

एक सामान्य गृहणी।देश,समाज,परिवार,प्रकृति को देख उसे अपने अंदर महसूस करके मन में होने वाले मंथन को अक्सर कागज पर कुछ शब्दों का आकार देने की कोशिश करती हैं  …।इन्हीं कोशिशों में कभी कविता,कभी गजल तो कभी गीत बन जाते  हैं। कई प्रतिष्ठित पत्र-पत्रिकाओं में कविताओं,लेखों के साथ ही बाल कविताओं कहानियों का प्रकाशन।अभी तक बच्चों के लिए एक चित्रात्मक कहानी “रंग बिरंगी दुनिया” प्रौढ़ों के लिए दो किताबें—“चिट्ठी आई” और “अपना धन” प्रकाशित।प्राथमिक स्कूल की कुछ पाठ्य पुस्तकों में भी बच्चों की कहानी और कवितायेँ प्रकाशित।इन्टरनेट पर इनकी  कवितायें,गीत,ग़ज़ल,कहानियां,लेख इनके  ब्लाग पर भी पढ़ी जा सकती हैं।

ब्लाग का पता है;

http://jharokha-jharokha.blogspot.com

 

 

 

रविवार, 11 जुलाई 2021

बदले बदले शहर गांव हैं

 

बिटिया रेवा 

दीदी भैया मम्मी पापा

सुन लो बहुत जरूरी बात

बिना मास्क के कहीं न जाना

चाहे  दिन  हो या हो रात l

 

भीड़ भाड़  से  दूरी  रखना

सदा सफाई पर देना ध्यान

घर से पढ़ना घर से लिखना

घर से ही करो जरूरी काम l

 

बदले बदले शहर गांव हैं

तौर तरीके नए नए

पढ़ने लिखने के ढंग बदले

सीख रहे  हैं खेल  नए  l

००००००



कवि-कौशल  पाण्डेय 

1310बसंत विहार

कानपुर-208021 मोबाइल-09532455570

कानपुर के अंकिन गाँव में 3 अगस्त 1956 को पैदा हुए कौशल पाण्डेय हिंदी बाल साहित्य के सशक्त हस्ताक्षर हैं l1977 से हिंदी की स्तरीय पत्र-पत्रिकाओं में लगातार रचनाओं का प्रकाशन lबच्चों बड़ों की अभी तक लगभग 10 किताबें प्रकाशित lदेश की कई संस्थाओं द्वारा प्रतिष्ठित पुरस्कारों से सम्मानित l 2016 में आकाशवाणी से सहायक निदेशक राजभाषा पदसे अवकाश ग्रहण करने के बाद स्वतन्त्र लेखन l   

 

गुरुवार, 11 मार्च 2021

झुमरू का बेटा

 (आज 11 मार्च को मेरे पिता स्व० श्री प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव जी का जन्म दिवस है।इस अवसर पर उन्हें स्मरण करते हुए उनकी यह कहानी आप सभी पाठकों के लिए।)

                   झुमरू का बेटा

               

                                                  लेखक--प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव



          झुमरू हमारे यहाँ हलवाहा था।उसका बेटा था नकुल।गाँव के जूनियर हाईस्कूल में नकुल और मैं एक ही कक्षा में पढ़ते थे।स्कूल में नकुल का नाम नकुलचन्द था।लेकिन मेरी माँ उसे नक्कू ही पुकारती थी।जब भी माँ उसे नक्कू कह कर बुलातीं मै उन्हें तुरन्त टोकता-माँ यह नक्कू नहीं नकुल है।स्कूल में इसका नाम नकुलचन्द है।

अरे चलचल, बड़ा आया नाम वाला।है तो झुमरू का ही बेटा न, नक्कू।होगा स्कूल में इसका नाम नकुलचन्द।माँ चिढ़ कर उत्तर देती।

          नकुल मेरा सहपाठी ही नहीं, मेरा अच्छा दोस्त भी था।पढ़ाई में बहुत तेज।वह मेरे साथ खेलता।हम साथ साथ घर पर पढ़ने भी बैठ जाते।कभी कभी वह हमारे यहाँ ही खाना भी खा लेता। मगर मुझे खाना थाली में दिया जाता, उसे पत्तल में।दरवाजे पर महुआ का पेड़ था।झुमरू रोज उसके पत्ते तोड़ कर पत्तल बनाता।बाप बेटे उसी पर साथ साथ खाते थे।आँगन के एक कोने में जमीन पर बैठ कर।खाने के बाद झुमरू उस जगह को पानी से लीप देता था।

    मां मुझे बहुत प्यार करती थी।इसीलिये मुझे नकुल के साथ खेलने पढ़ने से तो नहीं मना करती थीं।मगर वे इसका बड़ा ध्यान रखती थीं कि मेरे और नकुल के बीच एक दूरी अवश्य बनी रहे।मालिक और मजदूर की।शायद ऊँच नीच की भी।वे उसके हाथ का पानी नहीं पीती थीं।

पर यह सब जानते हुए भी नकुल माँ का बड़ा आदर करता था।वे जब उसे बुलातीं वह अपने सारे काम छोड़ दौड़ पड़ता।मैं खीझता तो वह मुझे समझाता --देख रमेश, इससे क्या होता है।मन से तो वे मुझे प्यार ही करती हैं।

      मेरे पिता जी शहर में नौकरी करते थे।हफ्ते में एक दिन के लिए घर आते थे।गाँव में हम लोगों की अच्छी खेती बारी थी।माँ इसके मोह जाल में फँस कर पिताजी के साथ शहर में रहने के लिए तैयार नहीं थीं।इसीलिए मुझे भी माँ के साथ ही रहना पड़ा।

समय ऐसे ही बीत रहा था।देखते न देखते वह दिन भी आया कि नकुल और मैंने गाँव के स्कूल की पढ़ाई पूरी कर ली।पढ़ाई के प्रति नकुल की लगन देख पिता जी ने मेरे साथ ही उसका नाम भी शहर के कालेज में लिखवा दिया।पर आगे चल कर हम लोगों को अलग होना पड़ा।वह मेडिकल की पढ़ाई करने दूसरे शहर चला गया।मैं प्रशासनिक सेवा की तैयारी करने लगा।

माँ को अब भी अपने गाँव के घर, जमीन, जायदाद का मोह जकड़े हुए था।इसीलिए घर नहीं छोड़ा। उनकी सेवा के लिए पिता जी ने एक नौकरानी लगा दी।बीच बीच में कभी मैं, कभी पिताजी उनके पास पहुँच जाते थे।

बहुत दिनों से मैं न तो नकुल से मिल पाया, न उसका कोई हालचाल मिला।एक दिन सुना कि वह डाक्टर  बन गया है।मगर उसने शहर में प्रैक्टिस करने के बजाय अपने गाँव में ही एक दवाखाना खोल लिया है।सुन कर मुझे बड़ी प्रसन्नता हुई।

इस बार गाँव आने पर नकुल से मेरी भेंट हुई।मैंने उसे गले लगाते हुए कहा --नकुल, गाँव में अपना दवाखाना खोलने के तुम्हारे फैसले से मैं बहुत खुश हूँ।आज लोग डाक्टर बनते ही पैसों के पीछे भागने लगते हैं।इसीलिए वे शहरों में ही अपना नर्सिंग होम खोलने या सरकारी नौकरी में आने का लालच नहीं छोड़ पाते।अपने देश का बड़ा हिस्सा गाँवों में ही बसता है।यहाँ सरकारी दवाखाने हैं पर वे अपर्याप्त हैं।तुम गाँव के लिए कुछ करोगे तो यह सब से बड़ी देश सेवा होगी।अब मैं भी माँ की ओर से निश्चिन्त रहूँगा।

अरे यह भी कोई कहने वाली बात है।वे तो मेरी भी माँ हैं। नकुल मुस्करा कर बोला।

लेकिन जब माँ ने सुना तो वे बड़बड़ायीं --अरे वाह, झुमरू का बेटा गाँव में डाक्टरी करने आया है। भला वह किसी केा क्या ठीक करेगा।कौन खायेगा उसके हाथ की दवा।

लेकिन इसके विपरीत नकुल बराबर उनका हालचाल लेने पहुँच जाता।उनकी कोई तकलीफ सुनता तो उसकी दवा दे जाता।मगर माँ उसके जाते ही उस दवा को किसी कोने में फेंक देती।

एक दिन नकुल ने देखा-- माँ को ज्वर है।उसने तुरन्त उनके लिये दवा भिजवा दी।मगर माँ ने हमेशा की तरह उसे भी फेंक दिया।

अगले दिन नौकरानी दौड़ती हुई नकुल के पास आयी और बोली-डा०साहब, माँ जी को बड़ा तेज बुखार है।उन्हें सुध बुध नहीं है।

नकुल तुरन्त दवा का बैग ले कर दौड़ पड़ा।माँ का शरीर तवे की तरह तप रहा था।वे अचेत थीं। नकुल नें उन्हें इन्जेक्शन लगाया।फिर माथे पर ठंडे पानी की पट्टी रखने लगा।

कुछ समय बाद माँ को आराम मिलता दिखायी दिया।उनकीं पलकें धीरे धीरे खुलने लगीं।थोड़ी देर बाद वे पूरी तरह होश में आ गईं।उन्होंने आँखे खोली तो देखा-- नकुल उनके पास बैठा माथे पर पानी की पट्टी रख रहा था वे सब समझ गईं।उनकी आँखें डबडबा आयीं।काँपते होठों से बस दो ही शब्द निकले-- बेटा नकुल।

हाँ माँ, मैं वही आपका नक्कू हूँ, झुमरू का बेटा। नकुल बोला।

नहीं तू तो मेरा बेटा नकुलचन्द है रे।”

नहीं माँ, मुझे नक्कू ही रहने दो।बड़ा प्यारा लगता है यह छोटा सा नाम।नकुलचन्द--- बाप रे बाप, इतने भारी भरकम नाम का बोझ मैं नहीं उठा पाऊँगा माँ। कहकर नकुल खिलखिला पड़ा।

  मां भी हँस पड़ी।पर तभी उनकी आँखे एक बार फिर नम हो आयीं।वे भर्राए गले से बोलीं-नकुल, मैंने कभी भी तुझे झुमरू के बेटे से अधिक कुछ नहीं माना।तेरे भीतर छिपे हुए हीरे को मैं कभी नहीं जान पायी।मुझे माफ कर दे बेटा।

नहीं माँ, भला कोई माँ अपने बेटे से ऐसा कहती है।एक ओर मुझे बेटा कहती हैं, वहीं दूसरी ओर मुझ से माफी भी माँग रही हैं!नहीं माँ, नहीं। कहते हुए नकुल ने अपना हाथ माँ के होठों पर रख दिया।

माँ नकुल के हाथ को अपनी दोनों हथेलियों के बीच दबाती हुई बोली-पहले मैं सोचती थी, कितना बड़ा मूर्ख है तू।लोग डाक्टर बन कर शहर में कमायी करते हैं।गाँव में भला क्या रखा है।पर नहीं, मैं गलत थी।

माँ, मैं पैसों के लिए इस पेशे में नहीं आया।यहाँ गाँव को मेरी ज्यादा जरूरत थी।यहाँ पैसा भले न हो, मगर लोगों का प्यार है।पैसे से आदमी जी तो लेता है, मगर दिल को सुकून तो प्यार से ही मिलता है।माँ उसे एकटक देखे जा रही थीं।नकुल सोच रहा था-- गाँव में अपना दवाखाना खोलना आज सचमुच सफल हो गया।

                                  ०००००००

लेखक--प्रेमस्वरूप श्रीवास्तव



11मार्च,1929 को जौनपुर के खरौना गांव में जन्म।

31जुलाई 2016 को लखनऊ में आकस्मिक निधन।

शुरुआती पढ़ाई जौनपुर में करने के बाद बनारस युनिवर्सिटी से हिन्दी साहित्य में एम0ए0।उत्तर प्रदेश के शिक्षा विभाग में विभिन्न पदों पर सरकारी नौकरी।पिछले छः दशकों से साहित्य सृजन मे संलग्न।देश की प्रमुख स्थापित पत्र-पत्रिकाओं में कहानियों,नाटकों,लेखों,रेडियो नाटकों,रूपकों के अलावा प्रचुर मात्रा में बाल साहित्य का प्रकाशन।आकाशवाणी के इलाहाबाद केन्द्र से नियमित नाटकों एवं कहानियों का प्रसारण।बाल कहानियों,नाटकों,लेखों की अब तक पचास से अधिक पुस्तकें प्रकाशित।वतन है हिन्दोस्तां हमारा(भारत सरकार द्वारा पुरस्कृत)अरुण यह मधुमय देश हमारा”“यह धरती है बलिदान की”“जिस देश में हमने जन्म लिया”“मेरा देश जागे”“अमर बलिदान”“मदारी का खेल”“मंदिर का कलश”“हम सेवक आपके”“आंखों का तारा“मौत के चंगुल में”(नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित बाल उपन्यास)“एक तमाशा ऐसा भी”(नेशनल बुक ट्रस्ट द्वारा प्रकाशित बाल नाटक संग्रह)आदि बाल साहित्य की प्रमुख पुस्तकें।इसके साथ ही शिक्षा विभाग के लिये निर्मित लगभग तीन सौ से अधिक वृत्त चित्रों का लेखन कार्य।1950 के आस पास शुरू हुआ लेखन एवम सृजन का यह सफ़र 87 वर्ष की उम्र तक निर्बाध चला।