मंगलवार, 29 दिसंबर 2015

नदी

सिर  से  उतर  पहाड़  के  बहती  जाए नदिया।
बिना   रुके   मैदानों   में  चलती  जाए नदिया।

गीत    सुनाते   हंसते-गाते,
उसको  आगे  तक  जाना है
रास्ते  में  जो भी मिल जाए
सबकी   प्यास   बुझाना  है

कल-कल करती कभी न थकती, बहती जाए नदिया।
बिना   रुके   मैदानों  में  चलती  जाए  नदिया।

थोड़ी  देर अगर  तुम ठहरो
मैं  भी  चलूं  तुम्हारे  साथ
नहीं  रुकूंगी  ना-ना   भैया
बोली  नदी  हिला  कर हाथ

समय है कम और दूर है जाना कहती जाए नदिया।
बिना  रुके   मैदानों   में  चलती  जाए  नदिया।
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गीतकार-डा0 अरविन्द दुबे
*पेशे से चिकित्सक एवम शिशु रोग विशेषज्ञ डा0 अरविन्द दुबे बाल एवम विज्ञान साहित्य लेखन के क्षेत्र में एक चर्चित एवम प्रतिष्ठित हस्ताक्षर हैं।अरविन्द जी की अभी तक बाल साहित्य और विज्ञान साहित्य की लगभग दो दर्जन पुस्तकें प्रकाशित हो चुकी हैं।


गुरुवार, 17 दिसंबर 2015

कुहरे में—।

कुहरे में जब सोया रहता
पूरा शहर हमारा
कोई कम्बल ओढ़े रहता
किसी को हीटर प्यारा।

ऐसी ठण्ढक में भी रखते
कुछ लोग ध्यान हमारा
मीलों सायकिल चला के लाते
अखबार हमारा प्यारा।

अलसाए हम सोते रहते
वो करते काम हमारा
चौका बर्तन करती काकी
गुदड़ी का उन्हें सहारा।


हाड़ कंपाते जाड़े में भी
भैया जी रिक्शा ले आते
क्या सोना उनको पसन्द नही
या फ़िर कुहरा उनसे हारा।
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डा0हेमन्त कुमार